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एककोशिक तथा भ्रमणशील होते हैं, जिनमें कशभिका (flagellum) विद्यमान रहता है, जैसे यूग्लिना (Euglena) में। कुछ जातियों के अनेक एककोशिक मिलकर झुंड बनाते हैं और कशाभिका के सहारे एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण करते हैं, जैसे प्ल्यूडोंराइना (Pleudorina), वॉलवॉक्स (Volvox) आदि। कुछ गोल (Coccoid) रूप धारण किए होते हैं, जैसे क्लोरोकॉक्कम (Chlorococcum), कुछ सूत्रवत् (filamentous) होते हैं, जैसे स्पाइरोजाइरा (Spirogyra) तथा यूलोअक्स (Ulothrix)। कुछ में दंडवत् रूप तथा सीधा रूप एक साथ होता है। इन्हें हेटरोट्राइकस श्रेणी में रखते हैं जैसे फ्रस्चियेल्ला (Fritschiella)। इस शैवाल में दो विभाग होते हैं, एक तो जमीन में धरातल के समानांतर सूत्रवत् अंश होते है, जिसे भूशायी (prostrate) भाग कहते हैं। इन्हीं भागों में से सीधे उगनेवाले सूत्रवत् भाग (filamentous form) पैदा होते हैं, जिन्हें इरेक्ट सिस्टेम (Erect system) कहते हैं। ऐसे ही शैवालों से पृथ्वी पर के बड़े बड़े पादपों के प्रादुर्भाव का होना समझा जाता है।
शैवालों में पोषण की समस्या स्वत: हल होती है। इनमें पर्णहरित विद्यमान रहता है, इसलिए प्रकाशसंश्लेषण की विधि से ये अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। अत: ऐसे पौधे स्वपोषी (Autotrophs) कहे जाते हैं।
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शैवालों में जनन कई प्रकार से होता है। कुछ तो स्वयं विभाजित होते रहते हैं और बढ़ते चले जाते हैं। यह क्रिया अधिकतर कोशिका विभाजन की रीति से होती है। एककोशिक शैवाल इसी रीति से जनन करते हैं। बड़े कोटि के शैवालों में अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों प्रकार के जनन होते हैं। अलैंगिक जनन कई ढंग से हो सकता है। कुछ शैवालों में चलबीजाणुओं (Zoospores) की उत्पत्ति होती है। चलबीजाणु नंगे जीवद्रव्य (Protoplasm) का पिंड होता है, जो कशाभिका के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है। चलबीजाणु पानी के शैवालों में पैदा होते हैं। ये स्वत: अंकुरित होकर नया शैवाल बनाते हैं। जब पानी की मात्रा कम होने लगती है, अथवा विपरीत वातावरण आ पड़ता है, तो अचलबीजाणु (Aplanospores) बनते हैं, जो मोटे आवरण से चारों ओर घिरे रहते हैं। इनमें कशाभिका नहीं होती। कुछ शैवालों में अलैंगिक जनन निश्चेष्ट बीजाणुओं (akinetes) द्वारा होता है। इनके बनने की रीति यह है कि शैवाल की कोई भी कोशिका गोलाकर होकर मोटी तह के आवरण रूप में चारों ओर से आच्छादित हो जाती है। ऐसी दशा तो केवल असंगत परिस्थिति में ही देखी जाती है, विशेषकर जब शुष्क और गर्म वातावरण हो जाता है। जब अनुकूल वातावरण प्राप्त हो जाता है तब इनका अंकुरण होने लगता है और ऊपरी, मोटी तह की दीवार धीरे से टूट जाती है और नवजात शैवाल का निर्माण होने लगता है। कुछ शैवाल पानी के किनारे पड़े रहते हैं। जब विपरीत वातावरण होता है, तब इनकी कोशिकाओं में विभाजन तो होता ही रहता है, परंतु ये विलग नहीं हो पातीं, अपितु कोशिका की दीवार मोटी होती जाती है और उसके अंदर कई कोशिकाएँ भरी पड़ी रहती हैं। जब अनुकूल वातावरण आता है, तब ये अंकुरित होकर नया शैवाल बनाती हैं। ऐसी दशा को पैलमेला अवस्था (Palmella stage) कहते हैं।
लैंगिक जनन (sexual reproduction) दो विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के संयोग से होता है। इन कोशिकाओं को युग्मक (gametes) कहते हैं। ये युग्मक युग्मकधानियों (gametangia) में पैदा होते हैं। दोनों प्रकार के युग्मकों के संयोजन (fusion) से युग्मज (zygote) बनता है। युग्मकों के जोड़े, जिसमें से एक पितृपक्ष का तथा दूसरा मातृपक्ष का होता है, तीन प्रकार के होते हैं :
(१) समयुग्मक (isogametes) में दोनों प्रकार के युग्मकों की रचना तथा आकार समान होता है। इनके द्वारा होनेवाले जनन को समयुग्मकी (isogamous) जनन की संज्ञा देते हैं।
(२) दो संयोजित युग्मक (fusing gametes) देखने में एक ढंग के होते हैं तथा कशाभिका द्वारा भ्रमणशील होते हैं, परंतु एक छोटा तथा दूसरा बड़ा होता है। छोटे युग्मक को लघुयुग्मक (Microgamete) तथा बड़े का गुरुयुग्मक (Macrogamete) कहते हैं। ये युग्मक विषम होते हैं तथा ऐसे जनन को असययुग्मकी (anisogamous) जनन कहते हैं।
(३) दोनों प्रकार के युग्मक भिन्न आकार के होते हैं। एक छोटा और भ्रमणशील तथा दूसरा बड़ा और स्थिर होता है। प्रथम कोटिवाले को पुंयुग्मकश् (Male gamete) तथा दूसरे को स्त्री युग्मक (Female gamete) या अंडा कहते हैं। इस प्रकार के जनन को विषमयुग्मक (oogamoos) जनन कहते हैं। इस प्रकार का जनन बहुधा बड़े शैवालों में होता है और इसे विषमयुग्मकता (Oogamy) कहते हैं।
संयोजन (fusion) की क्रिया के फलस्वरूप युग्मज और युग्माणु (zygospore) बनते हैं। ये अंकुरित होते हैं। अंकुरण के समय इनमें चलबीजाणु बनते हैं जो बाहर आने पर अंकुरित होकर नए शैवाल को जन्म देते हैं। आबादी के आतंक से छुटकारा पाने तथा खाद्य समस्या को हल करने के लिए, शैवाल पर त्व्रीा गति से प्रयोग जारी हैं। यह कहा जाता है कि अन्नसंकट को दूर करने में क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह शैवाल पौष्टिक पदार्थों से परिपूर्ण है। यह फैलने के लिए अधिक स्थान भी नहीं लेता। जितनी जमीन आज हमें प्राप्त है, उसके १/५ हिस्से में ही क्लोरेला के उपजाने से २०५० ई. में अनुमानित ७० अरब जनसंख्या के लिए भोजन, विद्युत् और जलावन प्राप्त हो सकता है। कानेंगी इंस्टिट्यूट, (संयुक्त राज्य, अमरीका,) के वैज्ञानिकों ने एक प्रायोगिक कारखाना बहुत बड़े पैमाने पर क्लोरेला उत्पादन के हेतु खोला है। अब तक के उत्पादन से यह अनुमान किया गया है कि प्रति एकड़ जमीन से ४० टन क्लोरेला सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है। इन वैज्ञानिकों का विश्वास है कि यह मात्रा १५० टन तक पहुँच सकती है।
वेनिजुएला में कुष्ठरोग की चिकित्सा में शैवाल लाभप्रद सिद्ध हुआ है। शैवाल से "लेमेनरिन' नामक एक पदार्थ बनाया गया है, जिसका उपयोग ओषधियों में तथा शल्यचिकित्सा में हो सकता है। कुछ शैवालों में मलेरिया के मच्छरों के डिंबों का नाश करने की क्षमता भी पाई गई है। अत: इनका उपयोग मलेरिया उन्मूलन में भी हो सकता है।
क्लोरेला से हम पर्याप्त परिमाण में ऑक्सीजन प्राप्त कर सकते हैं। वैज्ञानिक यह खोज कर रहे हैं कि ऑक्सीजन को कैसे कृत्रिम उपायों द्वारा शैवाल से निकालकर औद्योगिक कार्यों में प्रयुक्त किया जाए।
विभिन्न क्षेत्रों में शैवाल के उपयोगों को देखते हुए यह बात होता है कि कुछ ही दिनों में इसके महत्वपूर्ण तथा चमत्कारी गुणों द्वारा हम मानव जाति की अनेक समस्याओं को आसानी से हल कर सकेंगे।
जहाँ शैवालों के अनेक लाभप्रद उपयोग हैं, वहाँ इनमें कुछ दोष भी पाए गए हैं। कुछ शैवाल जल को दूषित कर देते हैं। कुछ से ऐसी गैसें निकलती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। कुछ शैवाल दूसरे पौधों पर रोग भी फैलाते हैं। चाय की पत्ती का लाल रोग, सेफेल्यूरस (Cephaleuros), शैवाल के कारण ही होता है।
इसकी जानकारी १८८३ ई. से शुरु हुई जब स्टैनफर्ड (Stanfurd) ने शैवाल हुई जब स्टैनफर्ड (Stanfurd) ने शैवाल में ऐल्जिनिक (Alginic) अम्ल की उपस्थिति का पता लगाया। विल्सटाटर और स्टॉल (Wilistatter and Stoll) ने शैवालों में पर्णहरित और अन्य रंगीन पदार्थों की उपस्थिति बतइलाई। १८९६ ई. में मोलिश (Molisch) ने सिद्ध किया कि शैवालों की वृद्धि के लिए खनिज लवण आवश्यक हैं। फिर अनेक व्यक्तियों ने जीवाणुओं से पूर्णतया अलग करके संबर्ध विलयन में शैवाल को उगाने का प्रयत्न किया। इनमें सबसे अधिक सफलता प्रिंगशाइम (Pringsheim) को मिली। शैवाल के उपापचय (metabolism) पर कार्य करने का श्रेय पियरसाल (Pearsall) और लूज़ (Loose) को है, जिन्होंने सिद्ध किया कि शैवाल और पौधों में प्रमुख रासायनिक क्रियाएँ प्राय: एक सी ही होती हैं। इनमें विशेष अंतर नहीं है। शैवालों में प्रकाशसंश्लेषण पर एंजेलमान (Engelman) तथा वारवुर्ग (Warburg) का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। शैवालों की रासायनिक क्रियाओं की सविस्तर समीक्षा मीयेर्स और ब्लिंक (Mayers and Blink) ने १९५१ ई. में की। इससे शैवाल के संबंध की वैज्ञानिक और व्यावहारिक जानकारी पर्याप्त रूप से प्राप्त हुई है। शैवाल के श्वसन के संबंध में वातानाबे (Watanabe, 1932-37 ई.) कैल्विन (Calvin, १९५१ ई.), एनी (Eny, 1950 ई.), एंडरसन (Anderson, 1945 ई.) और वेव्स्टर (Webster, 1951 ई.) के अनुसंधान विशेष उल्लेखनीय हैं। इन वैज्ञानिकों के मतानुसार श्वसन ऑक्सीकरण क्रिया है, जिसमें शर्करा के ऑक्सीकरण से ऊर्जा उत्पन्न होती है और शैवाल के निर्माण और वृद्धि में काम आती है।
सभी शैवालों में वर्णक यौगिक, विशेषत: पर्णहरित और कैरोटीन, होते है। किसी किसी में फाइकोसायानिन (Phycocyanin) भी पाया जाता है। यह वर्णक यौगिक प्रकाश के अवशोषण द्वारा ऊर्जा उत्पन्न कर पर्णहरित बनाता है। पर्णहरित प्रकाश ऊर्जा द्वारा इलेक्ट्रॉन निकालता है, जिसके द्वारा यौगिकों के अपचयन में ऊर्जा प्राप्त होती है। अपचयित पदार्थ का पुन: ऑक्सीकरण होकर, प्रकाश द्वारा ऊर्जा का आदान प्रदान होता रहता है। ऐसी ही क्रियाओं से कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन होकर शर्करा, स्टार्च, सेलुलोस आदि और फिर उनसे प्रोटीन, वसा, तेल आदि संश्लेषित होते हैं।