1. जैवतकनीकी की परिचय (Introduction to Biotechnology):
जैवतकनीकी, शुद्ध तथा प्रयुक्त विज्ञान के मध्य सेतु के रूप में निरूपित होती है, जहाँ पर विज्ञान को प्रौद्योगिकी में परिवर्तित होते हुए देखा जा सकता है । जैवतकनीकी में सजीवों, उनके तंत्रों तथा प्रक्रियाओं को विभिन्न पदार्थों के उत्पादन हेतु उपयोग में लिया जाता है ।
वर्तमान में जैवतकनीकी में पुनर्योजी DNA तकनीकी (Recombinant DNA Technology), मोनोक्लोनल एन्टीबोडी का निर्माण, ऊतक संवर्धन, प्रोटोप्लास्ट संकलन, प्रोटीन अभियांत्रिकी, कोशिकीय उत्प्रेरण (Cellular Catalysis) आदि तकनीकों को शामिल किया जाता है । 1970 में जैवतकनीकी एक नई शाखा के रूप में उभर कर आई । यह एक शुद्ध विज्ञान नहीं है, बल्कि जीव विज्ञान (Biology) तथा प्रौद्योगिकी (Technology) सामूहिक रूप है ।
जैवतकनीकी की परिभाषा (Definition of Biotechnology):
”जैविक प्रक्रमों, प्रतिरूपों तथा तंत्रों को मानव तथा अन्य जीवों के लाभ के लिये अधिक से अधिक उपयोग में लेना जैवतकनीकी कहलाता है ।”
जैवतकनीकी प्रयुक्त जैविक प्रक्रमों का विज्ञान है (Biotechnology is the Science of Applied Biological Process):
जैव तकनीकी विज्ञान की नई एवं तेजी से वृद्धि करती हुई शाखा है । इसमें आण्विक विज्ञान, ऊतक संवर्धन आनुवंशिक अभियाँत्रिकी तथा पादप रोग विज्ञान (Plant Pathology) को शामिल किया जाता है ।
पिछले दशक में जैव तकनीकी के शुद्ध तथा अनुप्रयुक्त पहलुओं में तेजी से वृद्धि हुई है । विभिन्न नई तकनीकों का विकास हुआ, जिसके कारण सजीवों की आनुवंशिकी, वृद्धि, परिवर्द्धन तथा प्रजनन के सम्बंध में नवीन सूचनाओं की प्राप्ति हुई ।
Major Areas of Biotechnology:
1. आनुवंशिक अभियांत्रिकी (Genetic Engineering)- विभिन्न रसायन, एन्जाइम, वेक्सीन वृद्धि, होर्मोन, प्रतिप्जैविक, इंटरफेरोन ।
2. बायोमास का उपयोग एवं उपचार (Treatment and Utilization of Biomass)- एकल कोशिय प्रोटीन, माइको प्रोटीन, एल्कोहल ।
3. पादप एवं प्राणी कोशिका संवर्धन (Plant and Animals Cell Culture)- एल्केलोइड, स्टीरोइड, इंटरफेरोन, मोनोक्लोनल एण्टीबोडी ।
4. नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen Fixation)- जैव खाद्य ।
5. जैव ऊर्जा (Bioenergy)- हाइड्रोजन, एल्कोहल, मीथेन ।
6. एन्जाइम (Enzyme)- बयोसेन्सर, कीमोथिरेपी ।
7. किण्वन (Fermentation)- अम्ल, एन्जाइम, एल्कोहल, प्रतिजैविक, विटामिन, टोक्सीन ।
8. प्रक्रिया अभियाँत्रिकी (Process Engineering)- जल पूनर्चक्रण, अपशिष्ट उपचार, हार्वेष्टिंग ।
अधिकांश विकासशील देशों में पुनर्योजी DNA तकनीकी को मुख्य महत्व दिया जा रहा है । भारत सरकर ने 1982 में एक अधिकारिक एजेन्सी NBTB (The National Biotechnology Board) की स्थापना की, जिसने DST (Department of Science and Technology) के अन्तर्गत कार्य करना प्रारम्भ किया ।
सन 1986 में NBTB का रूपांतरण एक स्वतंत्र विभाग DBT (Department of Biotechnology) में कर दिया गया । इसी संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर विकासशील देशों की सहायता के लिए ICGEB (International Center for Genetic Engineering and Biotechnology) की स्थापना की गई । इसके दो मुख्य केन्द्र नई दिल्ली (भारत) तथा ट्रिस्टे (इटली) में कार्यरत है । नई दिल्ली स्थित ICGEB का केन्द्र 1988 से कार्यरत है ।
जैवतकनीकी का भविष्य एवं महत्व (Scope and Importance of Biotechnology):
जैवतकनीकी जीवविज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा है । वर्तमान में इसका उपयोग औषधि, प्रोटीन अभियाँत्रिकी, उपापचय अभियाँत्रिकी, कृषि, उद्योग, पर्यावरण तथा मानव कल्याण हेतु किया जाता है ।
(1) जैव तकनीकी तथा रूमेन बैक्टीरिया (Biotechnology and Rumen Bacteria):
पशुओं के रूमेन में उपस्थित सूक्ष्म जीव भोजन पाचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । अभी हाल ही में नई तकनीकियों के द्वारा रूमन सूक्ष्म जीवों का पारिस्थितिकी तंत्र रूपांतरित करके परपोषी प्राणी की उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी की गई है ।
(2) जैव तकनीकी तथा प्रोटीन अभियांत्रिकी (Biotechnology and Protein Engineering):
इस विधि में सर्व प्रथम प्रोटीन इंजीनियर कम्प्यूटर की सहायता से प्रोटीन का मोडल तैयार करता है । इसके पश्चात् एक संश्लेषित जीन का निर्माण किया जाता है, जो उचित मात्रा में प्रोटीन का संश्लेषण करते हैं ।
इस प्रकार भविष्य में इच्छित रूप में प्रोटीन का संश्लेषण किया जा सकता है । एक अन्य इममोबाइल एन्जाइम तकनीकी के द्वारा भी इच्छित प्रकार के प्रोटीन का संश्लेषण किया जा सकता है ।
(3) जैव तकनीकी एवं लवण सहनशीलता (Biotechnology and Salt Tolerance):
विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में लवणता एक समस्या है । इस लवणता में कृषि करने में अनेक समस्याएं सामने आती हैं । इस संदर्भ में प्रोकेरियोट, यूकेरियोटिक शैवाल तथा उच्च पादपों में किये गये शोध कार्यों से अनेक सूचनायें मिली हैं । पौधों में OSM जीन पाये जाते हैं, लेकिन इनका विस्तृत अध्ययन बैक्टीरिया में किया गया है ।
कुछ विभिन्न प्रकार की सम्भावनाएँ निम्नांकित हैं:
(i) ओस्मो संवेदी बेक्टीरिया को ओस्मोटोलरेंट बेक्टीरिया में रूपांतरित किया जा सकता है ।
(ii) OSM जीन जिसमें तनाव सहन करने की क्षमता पाई जाती है, एक 10, 000 N-क्षार युक्त DNA के खण्ड के रूप में ले जाई जा सकती है ।
(iii) खण्ड में उपस्थित कोड, प्रोटीन पथ के प्रथम दो पदों में एन्जाइम उत्प्रेरण करते हैं ।
(iv) OSM जीन द्वार संश्लेषित एन्जाइम, प्रोटीन के पुनर्भरण अवमंदन (Feed-Back-Inhibition) के कारण अपनी संवेदिता खो देते हैं, जो कि मेटाबोलाइट के उत्पादन तथा लवण टोलरेंस के लिये आवश्यक गुण होता है । बायोसेलाइन मत (Bio-Saline Concept) ने जैवतकनीकी के आधुनिक संदर्भ में अपनी पहचान बनाई है
इस मत का मुख्य सारांश इस प्रकार है:
i. अनुपयुक्त मृदा, उच्च सोलर इन्सोलेशन तथा लवण जल, जो भूमि में उपस्थित है, उसे अनुपयुक्त की बजाय उपयुक्त स्रोत के रूप में मानना चाहिये तथा इसे भोजन, ईंधन व रसायन के उत्पादन में काम में लेना चाहिये ।
ii. आनुवंशिकी तथा आण्विक विज्ञान के प्रयोगों के अलावा लवण शहन शीलता विकसित करने के लिये ग्लाइकोफाइट तथा हैलोफाइट में तंतुमय नील हरित शैवाल (स्पाईरुलिना) को लवण जल में संवर्धित कर सकते हैं तथा जन्तु पोषण के लिये कोशिका प्रोटीन के रूप में काम में ले सकते हैं । NFTRI, मैसूर में यह प्रदर्शित किया गया है कि शैवाल मानव उपभोग के लिये अच्छी है ।
लवण जल में विकसित हो रही नील हरित शैवाल में पोली हाइड्रोक्सी ब्यूटाइरेट के संग्रह के कारण वाणिज्यक स्तर पर इसका उपयोग प्लास्टिक उद्योग में किया जाता है ।
अन्य महत्वपूर्ण रसायन जिन्हें लवण जल में शैवाल संवर्धन द्वार प्राप्त कर सकते हैं, जैसे- एक कोशिकीय लाल शैवाल (Porphyridium Alginates) के द्वारा सल्फेटेड पोली सेकेराइड का, समूद्री खरपतवार से केराजीनम का, डूनालिएला से ग्लिसरोल की प्राप्ति की जा सकती है ।
(4) जैव तकनीकी तथा कृषि (Biotechnology and Agriculture):
जैव तकनीकी का उपयोग कृषि के क्षेत्र में व्यापक रूप से हो रहा है ।
जैसे:
(i) पादप कोशिका, ऊत्तक तथा अंग संवर्धन ।
(ii) ट्रांसजेनिक पादपों का निर्माण जिनमें तेग प्रतिरोधक, कीट प्रतिरोधक, नाइट्रोजन स्थिरीकरण के गुण पाये जाते हैं ।
(iii) लैंगिक रूप से अक्षम्य प्रजातियों के मध्य सोमेटिक हाइब्रिड का निर्माण, जिसमें जंगली प्रजाति से जीन का स्थानांतरण क्रोप पादप (Crop Plant) में हो जाता है ।
(iv) चूहों, सुअर, बकरी, मुर्गी तथा भैंस में ट्रांसजेनिक तकनीकी का उपयोग ।
(5) जैव तकनीकी तथा उपापचय अभियांत्रिकी (Biotechnology and Metabolic Engineering):
इस तकनीकी में जैविक तंत्र के उपयोग से उपापचयी पदार्थों को औद्योगिक स्तर पर उत्पन्न किया जाता है । इस विधि में उपापचयी पथों के मेनीपुलेट कर दिया जाता है, जिससे उपापचय पदार्थ अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न किये जा सकते हैं ।
यद्यपि उपापचय अभियांत्रिकी की अनेक सीमाएँ हैं, जिनकों दूर किया जाना अत्यन्त आवश्यक है । जब नोड पर फलक्स वितरण में मेनीपुलेशन किया जाता है, तो इसका विरोध कोशिकाओं में उत्पन्न विधि के द्वार होता है । इसके जालक दृढ़ता (Network-Regidity) के नाम से जाना जाता है ।
(6) जैव तकनीकी एवं नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Biotechnology and Nitrogen Fixation):
अलेग्यूम पौधों में सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरिकरण कारकों को प्रवेश कराया जाय, तो इस प्रकार के सहजीवी करक जैसे गाल का निर्माण करने वाले एग्रोबेक्टीरियम ट्यूमीफेरियंस (Ti Plasmid) तथा रूट नोड्यूल बैक्टीरिया (Rhizobia) लेग्यूमीनस पौधों में ओस्मो जीन के निर्मुक्त करते हैं ।
ऐग्रोबैक्ट्रीरियम बाहरी जीन के होस्ट कोशिका में स्थानांतरित करते है, जबकि राइजोबीयम DNA का स्थानांतरण नहीं करते हैं । लेकिन इस प्रकार के रासायनिक उद्योग का कार्य करते हैं । यहाँ पर कच्चे पदार्थों का काम में आने योग्य पदार्थों में रूपांतरण हो जाता है ।
इसके अलावा एक DNA के खण्ड को भी पहचाना गया है, जो रूट नोडूल में बाहरी जीन को प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करता है । ये बाहरी जीन नाइट्रोजन स्थिरिकरण की ऊर्जा क्षमता को बढ़ाते हैं तथा पादप वृद्धि नियंत्रक को निर्मुक्त करते हैं ।
(7) जैवतकनीकी एवं पर्यावरण (Biotechnology and Environment):
जैव तकनीकी का उपयोग पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिये भी किया जाता है ।
इस तकनीकी का उपयोग:
(i) प्रदूषण नियंत्रण,
(ii) प्राकृतिक ऊर्जा के स्रोत में कमी को दूर करना,
(iii) भूमि अपरदन को रोकना,
(iv) जैव विविधता के संरक्षण आदि में किया जाता है ।
सूक्ष्मजीवों का उपयोग बायोपेस्टीसाइड, बायोफर्टिलाइजर तथा बायोसेंसर के रूप में किया जा रहा है । औद्योगिक क्षेत्रों में बायोमोनिटरिंग (Bio-Monitoring) हेतु भी इनका उपयोग किया जा रहा है ।
(8) जैव तकनीकी एवं पादप प्रजनन (Biotechnology and Plant Breeding):
यह व्यापक रूप से मानना पड़ेगा कि पिछले 40 वर्षों में खाद्यान्न के उत्पादन में हुई अप्रत्याशित वृद्धि आनुवंशिकी तथा पादप प्रजनन के द्वारा उन्नत किस्म के बीज उत्पादन के कारण हुई है । परम्परागत पादप प्रजनन की तकनीकी अनेक कमियों से गुजर रही है ।
मुख्य रूप से निषेचन के प्राकृतिक तरीके से जिसके कारण एक पौधे का आनुवंशिक चित्र तथा लैंगिक क्षम्य पौधों के जीन पूल में सीमितता के कारण रूपांतरण संभव नहीं है । जीन अभियाँत्रिकी तकनीकी के द्वारा इस तरह की सीमाओं को लांघते हुये पादप प्रजनक (Plant Breeders) को जीन का व्यापक क्षेत्र प्रदान करती है ।
नई तकनीकी केवल पादप प्रजनन में नये आयाम स्थापित करती है । इसे प्रतिस्थापित नहीं कर सकती है । नई तकनीकियों का उपयोग आनुवंशिक प्रक्रमों की अपूर्ण जानकारी के अभाव में विशेष रूप से फसल उत्पादन में कामगार साबित नहीं हो रही है ।
दलहन फसल (Cereal Crop) की प्राप्ति में होने वाले आनुवंशिक सुधार मुख्य रूप से हार्वेस्ट इंडेक्स से सम्बन्धित हैं । एक प्लांट ब्रीडिंग उद्योग की स्थापना मुख्य रूप से कोशिकीय तथा आण्विक जीव विज्ञान के तथ्यों पर आधारित है ।
उदाहरणार्थ शितोष्णीय पौधों में प्रकाश संश्लेषण के पथ में एन्जाइम 1,5-Diphosphate-Decarboxylase के द्वारा CO2 स्थिरीकरण होता है । यह भी सुझाया गया कि प्रयुक्त जीन की कोडिंग श्रृंखला में परिवर्तन करके एन्जाइम के गुणों में परिवर्तन करने से भी पादप क्षमता में वृद्धि की जा सकती है ।
दूसरी संभावना यह है कि शीतोष्ण पौधों के कार्बन के स्थिरीकरण पथ को उष्ण कटीबंधीय पौधों में पाये जाने वाले 4 कार्बन वाले स्थिरीकरण पथ के द्वारा प्रतिस्थापित हो जाये ।
(9) जैव तकनीकी और औद्योगिकी सूक्ष्मजैविकी (Biotechnology and Industrial Microbiology):
औद्योगिक सूक्ष्मजैविकी एक अन्य क्षेत्र है जिसकी और जैव तकनिकिज्ञों द्वार ध्यान दिया जाना आवश्यक है । विभिन्न प्रकार की औषधियों तथा रसायनों का निर्माण हो चुका है या निर्माण कार्य जारी है जिसमें औषधियों की गुणात्मक तथा मात्रात्मक लक्षणों पर भी ध्यान दिया जा रहा है ।
(10) जैव तकनीकी एवं औषधि (Biotechnology and Medicine):
औषधि के क्षेत्र में इंसूलिन तथा इंटरफेरोन का संश्लेषण बेक्टीरिया के द्वारा किया जा रहा है । विभिन्न प्रकार के DNA प्रोब तथा मोनो क्लोनल एण्टीबोडीज का संश्लेषण किया गया है । वृद्धि हॉर्मोन तथा अन्य औषधियों का संश्लेषण कार्य प्रगति पर है ।
1988 में मनुष्यों में एक प्रयोग किया गया । इस प्रयोग में बैक्टीरियल जीन युक्त लिम्फोसाइट को प्रवेश कराया गया, तो पाया गया कि कैन्सर की अंतिम अवस्था के रोगियों में रोग सुधार हुआ ।
सन् 1990-92 में हानिकारक रोगों से ग्रस्त रोगियों में जीन थेरेपी द्वारा उपचार किया गया । विभिन्न आपराधिक मामलों में DNA फिंगर प्रिंटिंग तकनीकी द्वारा अपराधियों का पता लगाना संभव हो पाया है ।
(11) जैव तकनीकी एवं पशु उत्पादन (Biotechnology and Live Stock Production):
पशुपालन में प्रजनन सुधार के लिए सुपर ओवुलेशन, भ्रुण प्रतिरोपण तथा क्लीनिंग तकनीकों को पहले से ही उपयोग में लिया जा रहा है । पुनर्योजी तकनीकी द्वारा प्राप्त सोमेटोट्रोपीन हॉर्मोन के उपयोग से गायों में दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है ।
बौमन तथा सहयोगियों के द्वारा दुग्ध देने वाली गायों पर किये गये प्रयोग से प्रवेशीत हॉर्मोन की मात्रा के अनुसार दुग्ध स्राव में बढ़ोतरी पाई गई । दुग्ध के संघटन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं पाया गया तथा गायों पर हॉर्मोन का भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा ।
(12) जैवतकनीकी तथा कोपी राइट (Biotechnology and Copy Right):
हाल ही के वर्षों में IPR (Intellectual Property Rights) की सुरक्षा पर काफी बहस हो चुकी है । साथ ही इन कानूनों की सुरक्षा पर बल दिये जाने से जैव तकनीकी का विकस प्रभावित हुआ है ।
IPR के अन्तर्गत पेटेन्ट, ट्रेडसिक्रेट, ट्रेडमार्क तथा कोपी राइट आदि को शामिल किया जाता है । इन कानूनों की सुरक्षा विभिन्न देशों में विभिन्न नियमों के द्वारा की जा रही है । यद्यपि जैव तकनीकी के सभी विकासीय सोपान IPR के तहत सुरक्षित नहीं रखे जा सकते हैं ।
जैसे- चिकित्सा के क्षेत्र में बाईपास सर्जरी, अंग प्रतिरोपण, कृत्रिम भुजाएँ, औषधियों का उपयोग, एन्टीबायोटिक्स तथा वेक्सीन इत्यादि को पेटेन्ट कानून के दायरे में नहीं लाया जा सकता है ।
दूसरी तरफ कई जैवतकनीक उत्पाद ऐसे भी है, जिनकों पेटेन्ट कानून के तहत लाया गया है । ये उत्पाद रूपांतरित प्रतिजैविक, हार्मोन, एंजाइम, संश्लेषित स्टिरॉइड, हृदय वाल्व, कृत्रिम दांत, रक्त संग्रह के लिये प्लास्टिक बेग इत्यादि हैं ।