पादप परजीवी सूत्रकृमि (निमेटोड्स) (Plant Parasitic Thread Worms : Nematodes)
सूत्रकृमि (निमेटोड्स) की लगभग 15 प्रतिशत प्रजातियाँ पादप परजीवी होती हैं, जो भारत सहित विश्व के अधिकांश देशों में विभिन्न फसलों को गम्भीर हानि पहुँचाती हैं और पूरे विश्व को पादप परजीवी सूत्र कृमियों के कारण लगभग 4500 करोड़ रुपयों की हानि होती है। ये चीड़, साइट्रस पेड़ों, नारियल, धान, मकई, मूंगफली, सोयाबीन, शकरकंद, चुकन्दर, आलू, केला इत्यादि को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। सूत्रकृमि मृदा से पौधों की जड़ों में प्रवेश कर पौधों की जड़ तने, पत्ती, फूल व बीज को संक्रमित करते हैं। पौधों में इनका संक्रमण सूत्रकृमि की द्वितीय डिम्भक अवस्था द्वारा होता है। सूत्रकृमि एक स्थान से दूसरे स्थान तक संक्रमित मृदा लगे खेती के औजारों, हल, जूतों, पानी के प्रवाह, संक्रमित पौधों व कृषि उत्पादों के द्वारा फैलता है। इनका नियंत्रण मृदा के धूम्रिकरण, रसायनों व सूत्रकृमि परभक्षियों द्वारा किया जा सकता है।
Note: About 15% species of these parasites are plant parasitic causing severe threat to various crops all over the world including India. Plant parasitic nematodes are responsible for loss of about 45 billion rupees all over the world. Plant nematodes can infect Pine, Citrus plants, Coconut, Rice crop, Maize, Peanut, Soya bean, Banana, Potato, Sweet potato, Beat etc. causing infection of root, stem leaf, flower and seed etc. Source of infection is contaminated soil containing eggs or larvae of infective plant nematode which enter in host plant through root in 2nd juvenile larval stage. This infection spreads from one place to another with contaminated soil, farmers instruments, shoes, flow of water and with infected plants and plant product. Plant nematodes are controlled by fumigation, chemicals and plant nematode predators.
1. प्रस्तावना - निमेटोड्स अर्थात सूत्रकृमियों का विकास उद्भव लगभग 1 अरब वर्ष पूर्व हुआ था, उनके जीवाश्म 12 से 13 करोड़ वर्ष पुराने हैं, यह एक अत्यन्त प्राचीन एवं विविधता से परिपूर्ण संघ है, लगभग 1 अरब वर्ष पूर्व विकसित हुये थे, ये जीव स्वतंत्रजीवी तथा जन्तु एवं पादप परजीवी होते हैं। मानव परजीवी सूत्र/गोल कृमियों ने ही हमारा ध्यान इन परजीवियों की ओर आकृष्ट किया। इनका पोषण सूक्ष्म जीवाणुओं अथवा पौधों एवं जन्तुओं से होता है।1, 2, इनके विकास की प्रमाणिकता इनी तुलनात्मक वाह्य व आन्तरिक आकार की पोषण विधियों व डी.एन.ए. क्रमबद्धता से स्थापित की गयी है। इन अध्ययनों से इस तथ्य की पुष्टि भी हुयी कि विकास क्रम में ही इन जीवों जन्तुओं और पादपों पर परजीविता के लिये अपने आपको अनुकूलित किया। अधिकांश सूत्रकृमि (लगभग 40 प्रतिशत) स्वतंत्रजीवी होते हैं, और इनका पोषण जीवाणुओं, कवकों, प्रोटोजोआ तथा अन्य निमेटोड्स से होता है। लगभग 45 प्रतिशत प्रजातियाँ अकशेरुकियों व कशेरुकियों पर परजीवी के रूप में पायी जाती हैं और लगभग 15 प्रतिशत प्रजातियाँ पादप परजीवी होती हैं। सूत्रकृमियों के अध्ययन का इतिहास मनुष्य तथा अन्य बड़े कशेरुकियों में इनकी रोगजनक परजीविका से प्रारम्भ हुआ, विशेष रूप से मनुष्य घोड़े, गाय, भैंस, मुर्गी, सुअर, इत्यादि में पायी जाने वाली इनकी रोक जनक परजीवी प्रजातियों ने मनुष्य का ध्यान इनके विस्तृत अध्ययन के लिये आकृष्ट किया, इनका प्राचीन अध्ययन भारत में सुश्रुत संहिता व चीन के प्राचीन ग्रंथों में लगभग 2700 ई.पू. पुराना है। पौधों पर पाये जाने वाले पादप सूत्रकृमियों के अध्ययन का इतिहास 235 ई.पू. में सोयाबीन के पौधों की जड़ों में पाये गये कृमियों से प्रारम्भ होता है। इनका पहला विस्तृत अध्ययन विवरण गेहूँ की बाली में नीडम द्वारा किया गया, इसके पश्चात खीरे की जड़ पर गाठों के रूप में बर्कले द्वारा, चुकन्दर में साचेट द्वारा किया गया, उसके बाद धीरे-धीरे सन् 1900 तक पादप सूत्रकृमि विज्ञान, परजीवी विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में स्थापित हो गया। पादप परजीवी सूत्रकृमि कृषि को हानि पहुँचाने वाले एक महत्त्वपूर्ण परजीवी हैं। भारत सहित पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 4500 करोड़ रुपयों के लगभग कृषि उत्पादन को हानि पहुँचाता है।
भारत में असम, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल में इनका विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है। अगले चरण में त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, गोवा, दिल्ली, उत्तराखण्ड में किया जाना है।
2. संरचना - निमेटोड्स/सूत्रकृमि त्रिस्तरीय,कूट देह गुहा वाले लम्बे धागेनुमा, स्वतंत्रजीवी तथा जन्तु व पादप परजीवी होेते हैं, अधिकांश सूत्रकृमि पारदर्शी होते हैं, जिसके कारण इनके अन्तरांग बाहर से ही देखे जा सकते हैं। पादप परजीवी सूत्रकृमि, विभिन्न आकार और माप के होते हैं, ये सामान्यतः लम्बे सूत्राकार कृमि जैसे होते हैं। परन्तु कुछ पादप सूत्रकृमि फूलकर थैली जैसे हो जाते हैं और देखने में सूत्र जैसे नहीं लगते हैं। पादप सूत्रकृमि 250 µm से 12 mm तक लम्बे और 15 µm से 1 mm तक मोटे होते हैं। इनमें कीटों की भांति निर्मोचन की प्रवृत्ति होती है, ये पूरे जीवन काल में 4 बार निर्मोचन करते हैं और वयस्क अवस्था 5वीं अवस्था होती है। इनमें कोशिकाओं की संख्या निश्चित होती है, प्रचलन सर्पिल गति से होता है, श्वसन व परिसंचारी तन्त्र नहीं होता है, इन परजीवी की जो प्रजातियाँ भ्रमणशील होती हैं वे पूरे जीवन काल में मृदा में एक मीटर से ज्यादा दूरी तय नहीं कर पाती हैं। अधिकांश परजीवी निमेटोड्स में मुखांग चूषकांग के रूप में विशेष रचना वाले होते हैं, पादप परजीवियों में मुख के अग्रभाग पर एक विशेष कंटिका जैसी रचना होती है जो पादप कोशिका में प्रवेश करके कोशिका का द्रव चूसने में सहायक होती है। पादप परजीवी निमेटोड्स/सूत्रकृमि अपनी सुरक्षा के लिये और अपने भक्षकों से बचने के लिये पोषक पौधों के ऊतकों के अन्दर ही रहते हैं और न्यूनतम प्रचलन करते हैं, परन्तु इससे उनके पोषक पौधों के नष्ट होने की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है और यदि पोषक पौधा सूख जायेगा तो ये भी नष्ट हो जायेंगे, दूसरी ओर कुछ सूत्रकृमि पोषक पौधे के नष्ट होने पर उस पौधे को छोड़ कर दूसरे पौधे पर चले जाते हैं। एक पौधे से दूसरे पौधे पर जाने के लिये इन्हें काफी प्रचलन करना पड़ता है जिससे इन्हें भक्षकों का सामना करना पड़ता है, साथ ही साथ मृदा के अजीवी कारक (जैसे जल, वायु, ताप, मृदा के रासायनिक संगठन एवं अम्लीयता इत्यादि) का प्रभाव भी पड़ता है, अधिकांश परजीवी निमेटोड्स ने अपने आपको अजीवी कारकों के लिये अनुकूलित कर लिया है इस क्रिया को क्रिप्टोवायोसिस कहते हैं।
3. पादप परजीवी निमेटोड्स/सूत्रकृमियों का प्रकीर्णन- पादप परजीवी सूत्रकृमि हल, खेती के औजारों, वाहनों के पहियों, जूते-चप्पल में लगी मिट्टी-कीचड़, पानी के बहाव, वायु संक्रमित खेती के उत्पाद जैसे बीज, कन्दमूल, प्रकन्द, इत्यादि के द्वारा एक खेत से दूसरे खेत तक फैलते जाते हैं तथा इनका संक्रमण नवीन स्थानों पर नवीन पौधों में फैलता जाता है।
पौधे के संक्रमित भाग- अधिकांश पादप परजीवी निमेटोड्स मृदा के माध्यम से पौधे की जड़ों को प्रभावित करता है, कुछ सूत्रकृमियों की प्रजातियाँ जड़ों से प्रवेश कर पौधे के तने को संक्रमित करती हैं और कुछ प्रजातियाँ जड़, तने से होकर पौधे की पत्तियों, पुष्पों, फल एवं बीज को प्रभावित करती हैं।
4. पादप सूत्रकृमि परजीवी के प्रकार
वाह्य परजीवी- कुछ पादप निमेटोड्स की प्रजातियाँ पौधे की जड़ों की वाह्य सतह पर कोशिकाओं का भक्षण करती हैं और आवश्यकता पड़ने पर एक पोषक पौधे से दूसरे पर आसानी से चले जाते हैं। इन परजीवी निमेटोड्स में चूषक कंटिकायें बहुत लम्बी होती हैं, जिसे ये पौधे की जड़ों में गहराई तक धंसा कर पोषण प्राप्त करते हैं।, कुछ सूत्रकृमियों की प्रजातियाँ पौधे की जड़ों को इस प्रकार उत्तेजित करती हैं कि पौधे की जड़ों की कोशिका में असामान्य वृद्धि होती है, जिससे परजीवी काफी समय तक भोजन प्राप्त कर सकता है। उदाहरण- अंजीर की जड़ों में पाया जाने वाला सूत्रकृमि परजीवी जीफीनिमा, पादप वाह्य परजीवी की एक प्रजाति इनोप्लआ पादप विषाणु का वाहक भी है जो पौधे में अपने संक्रमण के साथ विषाणु का संक्रमण भी फैला देता है।
आंशिक वाह्य परजीवी- इस प्रकार के सूत्रकृमि अपने पोषक पौधे की जड़ों पर वाह्य परजीवी के रूप में आकर अपने मुखाग्र को जड़ के अन्दर प्रवेश करा देते हैं, तत्पश्चात जड़ के अन्दर एक कोशिका को स्थाई रूप से पाषक कोशिका के रूप में उपयोग करते हैं। और वहाँ से अन्तः परिजीवी के रूप में अपना पोषण प्राप्त करते हैं तथा आकार में फूलते जाते हैं, परिणाम स्वरूप जड़ की सतह पर एक अर्ध पारदर्शी गांठ के रूप में प्रतीत होते हैं ये एक बार अपने आपको वाह्य अन्तः परजीवी के रूप में स्थापित करने के बाद जीवन पर्यन्त गमन अथवा प्रचलन नहीं करते हैं। परन्तु इससे इनके जीवन को संकट भी बढ़ जाता है, क्योंकि यदि इनका पोषक पौधा नष्ट होगा तो उसके साथ इनकी मृत्यु भी निश्चित है।
उदाहरण - रोटीलेन्चेस रेनीफार्मिस, टायलेन्वेलस सेमीपेनीट्रेन्स,
हेलीकाटीलेन्च्सच
भ्रमणशील अन्तः परजीवी निमेटोड्स- ये परजीवी अन्तः परजीवी के रूप में अपने जीवन का अधिकांश समय पौधे के अन्दर तीव्र गति से कोशिकाओं का भक्षण करते हुये पौधे के एक भाग से दूसरे भाग की ओर गमन करते रहते हैं, ये अपनी कंटिका को कोशिका में प्रवेश कराके उसके जीव द्रव उपयोग करके उसे नष्ट कर देते हैं और फिर दूसरी, तीसरी, चौथी कोशिका को नष्ट करते हुये आगे बढ़ते जाते हैं। ये पादप कोशिका के अन्दर ही प्रजनन करते हैं और इनके अंडे के परिपक्व होने पर उनसे निकले डिम्भक निर्मोचन के पश्चात दूसरी डिम्भक अवस्था में पादप कोशिका का भक्षण प्रारम्भ कर देते हैं, इस प्रकार इस परजीवी का विकास, पोषण, प्रजनन निर्मोचन अन्तः परजीवी के रूप में कोशिका के अन्दर ही होता है। उदाहरण- पारटीलेन्चस (व्रण निमेटोड), राडोफोलस (बिल/सुरंग निमेटोड), हिरस्चमैनेल्ला (धान की जड़ का निमेटोड्स)
अभ्रमणशील अन्तः परजीवी सूत्रकृमि- ये निमेटोड्स पौधे को सर्वाधिक क्षति पहुँचाते हैं, ये अभ्रमणशील होते हैं और जीवन पर्यन्त एक ही स्थान पर रहते हैं। इनकी द्वितीय डिम्भक अवस्था पौधे की जड़ के अग्रभाग से प्रवेश करती है और जड़ के अन्दर नवजात विकसित होते हैं जो संवहन ऊतक के अन्दर स्थापित हो जाते हैं वहाँ एक विशेष रसायन कोशिका में प्रविष्ट करा देते हैं जिससे वह कोशिका फूल कर बहुत बड़ी हो जाती है और इसे पोषक कोशिका कहा जाता है और परजीवी को इसी कोशिका से जीवन पर्यन्त पोषण मिलता रहता है। उदाहरण- हेटरोडेरा ग्लोबोडेरा।
कन्द व स्तम्भ परजीवी- पेड़ों पर पाये जाने वाले स्तम्भ निमेटोड का जीवन-चक्र अत्यन्त विशिष्ट होता है। इस निमेटोड की प्रतिरोधी अवस्था वृक्ष की छाल का भक्षण करने वाले कीट के द्वारा एक स्थान से दूसरे चीड़ के वृक्ष पर पहुँचती है और कीट से निकलकर सूत्रकृमि चीड़ के वृक्ष के अन्दर प्रवेश कर जाता है, अन्दर पहुँचकर ये पौधे के संवहन ऊतक और राल वाहिका की कोशिकाओं का तीव्र भक्षण करता है, जिसके परिणाम स्वरूप संवहन ऊतक में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और चीड़ का वृक्ष मुर्झा कर नष्ट हो जाता है। ये सूत्रकृमि बहुत तीव्र गति से आस-पास के चीड़ के पौधों पर फैलकर उन्हें भी नष्ट करता है। उदाहरण- बरसाफेलेन्चस जइलोफिलस।
बीज संक्रामक सूत्रकृमि- सन 1773 में सबसे पहले इन्हीं पादप निमेटोड्स का वैज्ञानिक अध्ययन किया गया था, इसकी प्रमुख प्रजाति एन्गुविना परजीवी की डिम्भक अवस्था जल की पतली पर्त के साथ प्रवजन करके पत्तियों तक पहुँचती है और वहाँ वाह्य परजीवी के रूप में नवजात पत्तियों का भक्षण प्रारम्भ कर देते हैं तथा जब पुष्पन प्रारम्भ होता है तो ये पुष्प का भक्षण करते-करते नवजात बीज में प्रवेश कर उसे नष्ट कर देते हैं और बीज के स्थान पर एक काली गांठ बन जाती है जो लगभग 30 वर्षों तक सुरक्षित रह सकती है और नवीन पौधे को सूत्रकृमि से संक्रमित कर सकती है।
पर्णक परजीवी सूत्रकृमि- एफलेनक्वाइडिस नामक पर्ण निमेटोड जल के पतले स्तर में प्रवजन कर मृदा से तने पर होते हुए पत्तियों तक पहुँच कर रन्ध्रों से होकर पत्ती के अन्दर प्रवेश करके क्लोरोसिस उत्पन्न कर देता है और धीरे-धीरे पत्ती नष्ट हो जाती है, ये संक्रमण एक पत्ती से दूसरी पत्ती तक फैलता जाता है और वायु के साथ एक पौधे से दूसरे पौधे तक फैलता जाता है।
5. मुख्य पौधों की सूत्रकृमि समस्या
1. नींबू कुल/साइट्रस पौधों पर कई प्रकार के सूत्रकृमि पाये जाते हैं तो सन्तरे, मोसम्मी, चकोतरे, नींबू इत्यादि की फसलों को गम्भीर हानि पहुँचाते हैं, उदाहरण- टाइलेन्चलस सेमीपेनीट्रेन्स, साइट्रस फलों का उत्पादन करने वाले विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है जिसके कारण साइट्रस फलों की फसलों को 50-90 प्रतिशत तक हानि पहुँचाती हैं, एक अन्य प्रजाति रोडोफोलस सिमिलिस भी जड़ों से तनों तक सुरंग बनाकर अन्तः परजीवी के रूप में नींबू कुल के पौधों को नष्ट कर देता है।
2. नारियल के पेड़ों को राडिनाफिलेन्चस कोकोफिलस नाम सूत्रकृमि जो सुरंग जैसी नालिकावत रचना बनाकर जड़ों व स्तम्भ को अन्तः परजीवी के रूप में संक्रमित करता है, ये रहेन्कोफोरस पाल्मरम नामक कीट द्वारा एक से दूसरे वृक्ष तक फैलता है।
3. मक्के की फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले सूत्रकृमि हेटरोडेरा जेई भारत, पाकिस्तान, मिस्र, मेरीलैण्ड व अमरीका में बहुतायत से पाया जाता है।
4. कपास के पौधों में ग्रंथिलमूल रोग, तथा वृक्काकार रोग महत्त्वपूर्ण रोग है जो प्राटिलेनचस ब्रकिपूरस तथा रोटीलेन्चलस रेनिफार्मिस से होता है।
5. फलीदार पौधों विशेष रूप से मटर, अरहर, मूंग, मसूर, आदि में हैटरोडेरा गोइटिनगिआना का संक्रमण इन फसलों को गम्भीर हानि पहुँचाता है।
6. मूंगफली के फली व जड़ों को संक्रमित करने वाले मुख्य सूत्रकृमि मेलियोडागाइन एरिनेरिया, मेलियोडोगाइन जवानिका, मेलियोडोगाइन हेप्ला इत्यादि।
7. आलू की फसल को मुख्य रूप से ग्लोबोडेरा रोस्टोसिनेसिस, ग्लोबोडेरा पलिडा नामक सूत्रकृमि से हानि पहुँचती है ये संक्रमण भारत सहित विश्व के अधिकांश आलू उत्पादक देशों में फैला हुआ है और आलू की फसल को गम्भीर हानि पहुँचाता है।
8. धान की फसल को एफेलेनक्वाइडिस बेसेई, डाइटिलेन्चस एग्सटस, हेटरोडेरा ओराइजी इत्यादि से गम्भीर हानि पहुँचती है जो धान के पौधों की जड़ों, तने पत्तियों व बालियों को संक्रमित कर उन्हें नष्ट करती है।
9. सोयाबीन की 75 प्रतिशत फसल अमेरिका में उत्पन्न होती है जहाँ सूत्रकृमि की विभिन्न प्रजातियाँ संक्रमण फैलाती हैं।
10. चुकन्दर, शकरकन्द, गाजर, मूली, तम्बाकू, सब्जियों, गेहूँ तथा अन्य अनाज की फसलों को सूत्रकृमियों की विभिन्न प्रजातियों से गम्भीर हानि पहुँचती है।
6. पादप निमेटोड्स का नियन्त्रण व उपचार - पादप परजीवी निमेटोड्स को नियन्त्रण करने की कई विधियाँ हैं जो मुख्यतः तीन प्रकार की हैं- 1. जैविक विधि, 2. सूत्रकृमि भक्षक संवर्धन विधि, 3. रासायनिक विधि।
1. जैविक विधि- नियन्त्रण विधियों से सरल विधि है सूत्रकृमि प्रतिरोधी प्रजातियों की खेती करना, मगर सूत्रकृमि प्रतिरोधी प्रजातियों को चिन्हित करने में बहुत समय जाता है अतः ये विधि अधिक उपयोगी नहीं है। एक अन्य विधि फसल परिवर्तन है, यदि खेतों में फसल बदल कर ऐसी फसल उगाई जाये जो सूत्रकृमियों के लिये पोषक के रूप में उपयोगी न हो तो सूत्रकृमियों को पोषण न मिलने के कारण मृत्यु हो जायेगी, इस प्रकार सूत्रकृमियों पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
2. सूत्रकृमि भक्षक संवर्धन विधि- जैविक नियन्त्रण की एक अन्य विधि सूत्रकृमि परजीवी परभक्षी संवर्धन भी अपनायी जा सकती है, जिसमें सूत्रकृमि परभक्षी जीवों या सूत्रकृमि रोगजनकों का प्रयोग करके सूत्रकृमियों का नाश किया जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि कुछ जीवाणु, माइकोप्लाज्मा, कवक, प्रोटोजोआ, सूत्रकृमि, कीट इत्यादि पादप परजीवी सूत्रकृमियों के रोगजनक या भक्षक होते हैं जिनसे उनपर नियंत्रण किया जा सकता है। जीवाणु पास्चयुरिका पेनेटेंस सूत्रकृमि संक्रमित कर नष्ट कर देता है। आर्थोबोट्सि डक्टिलाइडिस नामक कवक पादप परजीवी सूत्रकृमियों को संक्रमित करके उसके चारों ओर कवक तन्तुओं का जाल बना देते हैं जिसमें फँस कर सूत्रकृमियों की मृत्यु हो जाती है फिर कवक अपने चूषकों की सहायता से पूर्णतया समाप्त कर देता है। कुछ सूत्रकृमि जैसे मोनोन्कस तथा ओडोन्टोफेरेंक्स पादप परजीवी सूत्रकृमियों का भक्षण कर लेते हैं, ये विधियाँ प्रायोगिक स्तर पर सफल रही हैं परन्तु व्यावसायिक स्तर पर परभक्षियों का संवर्धन करना अत्यन्त खर्चीला होता है। इसलिये अभी इस विधि का प्रयोग व्यावसायिक स्तर पर नहीं किया जा रहा है।
3. रासायनिक विधि- रासायनिक विधियों से भी सूत्रकृमियों का नाश किया जा सकता है। यह विधि कम खर्चीली है और अधिक प्रभावी है। पिछले 50 वर्षों से इस विधि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा रहा है, ये उपचार मुख्यतः दो प्रकार से होता है, प्रथम मृदा धूनी/धूम्र/गैस उपचार इस विधि में 1.3 डाई क्लोरो प्रोपीन (टिलोन-2), क्लोरोपिक्रीन (आंसू गैस) डाजोमेट (बासामिड), मिथाइल ब्रोमाइड को गैस के रूप में प्रभावित क्षेत्र में मृदा के अन्दर डाला जाता है, परन्तु वायु प्रदूषणकारी प्रभाव के कारण इनका उपयोग सीमित एवं नियंत्रित रूप में अति आवश्यक स्थिति में ही किया जाता है दूसरी श्रेणी में तरल या ठोस सूत्रकृमि नाशक आते हैं। जैसे- फेनामिफोस (नेमाकर) तथा एल्डीकार्ब (टेमिक) जिन्हें तरल या दानेदार रूप संक्रमित मृदा में डाला जाता है परन्तु इनका प्रभाव प्रथम प्रकार के सूत्रकृमि नाशकों की तुलना में कम प्रभावी है उसके साथ ही ये रसायन मृदा में उपस्थित बहुत से उपयोगी कीटों, मृदा कृमियों (केचुओं) के लिये तंत्रिका विष के रूप में कार्य कर उन्हें मार देते हैं एवं उपयोगी जीवाणु को भी नष्ट कर देते हैं और मृदा में गंभीर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं जिससे मृदा की उर्वरता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
निष्कर्ष- पादप परजीवी सूत्रकृमि हमारे कृषि एवं वन आच्छादित क्षेत्रों में बहुत हानि पहुँचाते हैं, विभिन्न रसायनों व रासायनिक खादों के उपयोग ने इन्हें रसायन प्रतिरोधी भी बना दिया है जिसके कारण इनके द्वारा संक्रमण फैलने पर उपचार करना कठिन होता है और इनकी भरपूर जानकारी भी न होने के कारण किसान समय रहते इन पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं, आज आवश्यकता इस बात की है कि इनके संक्रमण के लक्षण, रोग की पहचान और समय रहते सही उपचार किया जाये क्योंकि समस्या एक किसान के खेत की नहीं वरन देश की अर्थव्यवस्था की भी है।