नामपध्दति(Nomenclature) क्या हैं?
नामपध्दति(Nomenclature) का तात्पर्य विज्ञानियों विषेशतः जीवविज्ञानियों के मध्य सम्प्रेषण को सुलभ बनाने के उद्देश्य से जाति सहित वर्गकों(Taxa) के समस्त स्तरों के नामकरण से होता हैं। नॉमिनक्लेचर(Nomenclature) शब्द की उत्पत्ति दो लैटिन शब्दों, nomen = नाम तथा clature = पुकारना से हुई तथा इसका अक्षरतः अर्थ होता हैं— ‘नाम से पुकारना’(Call by name)। नामपध्दति के द्वारा हम किसी भी वर्गक से सम्बन्धित समस्त उपलब्ध जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। वर्गकों के नामों एवं नामकरण से सम्बन्धित नियमों को सामूहिक रूप से नामपध्दति की नियमावली(Code of Nomenclature) के रूप में माना जाता हैं।
नामपध्दति का इतिहास(History Of Nomenclature)
नामपध्दति हजारों वर्षों से मानव संचार और संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। नामकरण का इतिहास भाषा, लेखन और वैज्ञानिक जांच के विकास से निकटता से जुड़ा हुआ है।
नामपध्दति के शुरुआती उदाहरणों में से एक व्यक्तियों की पहचान के लिए व्यक्तिगत नामों का उपयोग है। मेसोपोटामिया (Mesopotamia) और मिस्र (Egypt) जैसी प्राचीन सभ्यताओं में, लोग खुद को दूसरों से अलग करने के लिए व्यक्तिगत नामों का इस्तेमाल करते थे। समय के साथ, नाम अधिक जटिल और विस्तृत हो गए, जिसमें शीर्षक, मानदण्ड और वंशावली संबंधी जानकारी शामिल थी।
जैसे-जैसे समाज अधिक जटिल होते गए, नामकरण की मानकीकृत प्रणालियों की आवश्यकता बढ़ती गई। इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण विकास अक्षरों का निर्माण था, जिसने लोगों को शब्दों और विचारों को सुसंगत तरीके से प्रस्तुत करने की अनुमति दी। प्राचीन यूनानी एक मानकीकृत वर्णमाला विकसित करने वाले पहले लोगों में से थे, जिसका उपयोग वे अपनी भाषा लिखने और अपनी वैज्ञानिक टिप्पणियों को रिकॉर्ड करने के लिए करते थे।
मध्य युग में, छात्रवृत्ति और संचार की एक आम भाषा के रूप में लैटिन के विकास ने कई लैटिन-आधारित नामकरण प्रणालियों का निर्माण किया। पौधों और जानवरों से लेकर खनिजों और रसायनों तक हर चीज के लिए लैटिन (Latin) नामों का इस्तेमाल किया जाता था। ये नाम अक्सर वर्णनात्मक होते थे, जो नाम की जा रही वस्तु के स्वरूप या गुणों पर आधारित होते थे।
पुनर्जागरण के दौरान, प्राकृतिक इतिहास और वर्गीकरण के अध्ययन ने नई नामकरण प्रणालियों के विकास को प्रेरित किया। स्वीडिश वनस्पतिशास्त्री(Swedish Botanist) कार्ल लिनिअस(Carl Linnaeus) को द्विपद नामपध्दति (Binomial Nomenclature) की आधुनिक प्रणाली बनाने का श्रेय दिया जाता है, जो प्रत्येक प्रजाति के नाम के लिए दो लैटिन शब्दों का उपयोग करता है। यह प्रणाली, जो आज भी उपयोग में है, वैज्ञानिकों को मानकीकृत और सुसंगत तरीके से जीवों की पहचान और वर्गीकरण करने की अनुमति देती है।
आधुनिक युग में, अध्ययन के नए क्षेत्रों के विकास के कारण कई नई नामकरण प्रणालियों का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए, कंप्यूटर प्रोग्रामिंग लैंग्वेज(Computer Programming Language) विभिन्न कार्यों और संचालन का वर्णन करने के लिए विशेष शब्दों और सिंटैक्स का उपयोग करती हैं। चिकित्सा शब्दावली विभिन्न रोगों और स्थितियों का वर्णन करने के लिए लैटिन और ग्रीक मूल के संयोजन का उपयोग करती है।
नामपध्दति का इतिहास हमारे चारों ओर की दुनिया को व्यवस्थित और वर्गीकृत करने की मानवीय इच्छा को दर्शाता है। मानकीकृत नामकरण प्रणालियों के विकास के माध्यम से, हम अधिक प्रभावी ढंग से संवाद करने और प्राकृतिक दुनिया की अपनी समझ को आगे बढ़ाने में सक्षम हुए हैं।
प्राणि नामपध्दति के सिद्धांत (Principles of Zoological Nomenclature)
प्राणि नामपध्दति जानवरों के नामकरण और वर्गीकरण के लिए नियमों और दिशानिर्देशों की प्रणाली है। प्राणि नामकरण के सिद्धांतों को Zoological Nomenclature(ICZN) पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग द्वारा विकसित और अनुरक्षित किया गया है, जो जानवरों के वैज्ञानिक नामों में स्थिरता और सार्वभौमिकता को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है।
प्राणि नामकरण के कुछ प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं:-
*एक जानवर के वैज्ञानिक नाम में दो भाग होते हैं, वंश (Genus) नाम और जाति(Species) का नाम। उदाहरण के लिए, होमो सेपियन्स(Homo Sapiens) मानव का वैज्ञानिक नाम है।
*एक जानवर का वैज्ञानिक नाम लैटिन या ग्रीक भाषा में होना चाहिए, और इटैलिक(तिरछे) या रेखांकित शब्दों में लिखा जाना चाहिए।
*वंश नाम हमेशा पूंजीकृत होता है, जबकि जाति का नाम नहीं होता है। उदाहरण के लिए, पैंथेरा लियो(Panthera leo) शेर का वैज्ञानिक नाम है, जिसमें पैंथेरा वंश(Genus) है और लियो जाति(Species) है।
*किसी जानवर का वैज्ञानिक नाम हमेशा लैटिन वर्णमाला में माना जाता है, भले ही वह गैर-लैटिन शब्द या नाम से लिया गया हो।
*प्राथमिकता के सिद्धांत में कहा गया है कि एक वर्गक के लिए पहला वैध रूप से प्रकाशित नाम सही नाम है, जब तक कि इसे ICZN के बाद के फैसले से पलट नहीं दिया गया हो।
*समरूपता के सिद्धांत में कहा गया है कि एक वैज्ञानिक नाम किसी अन्य नाम के समान नहीं होना चाहिए जो पहले एक ही राज्य के भीतर एक अलग वर्गक(Taxon) के लिए इस्तेमाल किया गया हो।
*द्विपद नामकरण के सिद्धांत की आवश्यकता है कि प्रत्येक प्रजाति का एक विशिष्ट वैज्ञानिक नाम होना चाहिए, जिसमें एक जीनस नाम और एक जाति का नाम शामिल हो।
*प्रकार पदनाम के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि एक नमूना या नमूनों के समूह को एक वर्गक के "प्रकार" के रूप में नामित किया जाए, जो नाम के भविष्य के उपयोग के लिए एक संदर्भ के रूप में कार्य करता है।
ये सिद्धांत यह सुनिश्चित करने में मदद करते हैं कि जानवरों के वैज्ञानिक नाम स्थिर, सार्वभौमिक और उपयोग में आसान हैं, जिससे शोधकर्ताओं को प्राकृतिक दुनिया के अपने अध्ययन में प्रभावी ढंग से संवाद करने और सहयोग करने की अनुमति मिलती है।
नामपध्दति (Nomenclature)
किसी जीव का वर्गीकरण करते समय सबसे पहले उसका नामकरण करना आवश्यक होता हैं। जीवों के नाम प्रकार के होते हैं— साधारण या देशी नाम, तथा वैज्ञानिक नाम।
1) साधारण या देशी नाम(Common or Vernacular Names)— आरम्भ से ही मानव ने अपने आस- पास मिलने वाले पादपों एवं जन्तुओं के नाम रखने प्रारम्भ कर दिए थे। ये सीधारण नाम प्रायः स्थानीय ही होते हैं। ये नाम किसी विशेष गुण की ओर संकेत करते हैं। साधारण नाम स्थानीय नाम होने के कारण विभिन्न क्षेत्रों/स्थानों अथवा देशों में अलग- अलग होते हैं। कभी- कभी कई विभिन्न प्रकार के जीवों के साधारण नाम समान होते हैं। इसके अतिरिक्त एक ही जीव को एक ही देश के विभिन्न भागों में अलग- अलग स्थानीय नामों से जाना जाता हैं, परिणामस्वरूप किसी जीव का अध्ययन करने में अत्यन्त कठिनाई का सामना करना पड़ता हैं क्योंकि दूसरे स्थान या भाषा का व्यक्ति उस जीव के विषय में समझ ही नहीं सकता; जैसे— गोरैया नाम के भारतीय पक्षी को इंग्लैण्ड (England) में हाउस स्पैरो(House Sparrow), स्पेन (Span) में पार्डल(Pardal), इंग्लैण्ड में मुश(Musch) और जापान(Japan) में सुजुन(Suzune) नामों से जाना जाता हैं।
2) वैज्ञानिक नाम(Scientific Names)— जीवों के वैज्ञानिक नाम सम्पूर्ण विश्व के किसी भी भाग में स्वीकार्य होते हैं। प्रत्येक जीव को केवल एक वैज्ञानिक नाम दिया जाता हैं। जीवों को वैज्ञानिक नाम देने की निम्नलिखित पध्दतियाँ अपनाई गई हैं —
A) बहुपद नामपध्दति (Polynomial Nomenclature)
बहुपद नामपध्दति जीवों के नामकरण की एक प्रणाली है जिसमें प्रत्येक प्रजाति को एक अद्वितीय नाम दिया जाता है जिसमें दो या दो से अधिक भाग होते हैं, जिन्हें जीनस (Genus) और प्रजातियों(Species) के नाम कहा जाता है। इस प्रणाली को पहली बार 1758 में स्वीडिश वनस्पतिशास्त्री(Swedish Botanist) कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) ने अपनी पुस्तक "सिस्टेमा नैचुरी"(Systema Naturae) में पेश किया था, और आज भी इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।
बहुपद नामपध्दति में, जीनस नाम हमेशा पूंजीकृत होता है और पहले आता है, उसके बाद जाति का नाम आता है, जो छोटे अक्षरों(Small Latter's) में लिखा जाता है। दोनों नाम तिरछे (इटैलिक) में लिखे गए हैं (या हस्तलिखित होने पर रेखांकित), और जीनस नाम को एक बार पूर्ण रूप से लिखे जाने के बाद संक्षिप्त किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, सामान्य घरेलू बिल्ली का वैज्ञानिक नाम फेलिस कैटस(Felis catus) है, जहाँ फेलिस वंश (Genus) नाम है और कैटस(catus) जाति (Species) का नाम है। मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स (Homo sapiens) है, जहां होमो(Homo) वंश (Genus) नाम है और सेपियन्स(sapiens) जाति का नाम है।
बहुपद नामपध्दति वैज्ञानिकों को एक मानकीकृत तरीके से जीवों के बारे में संवाद करने और सामान्य नामों के कारण होने वाले भ्रम से बचने की अनुमति देता है, जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र या भाषा से भाषा में भिन्न हो सकते हैं।
B) द्विपद नामपध्दति (Binomial Nomenclature)
द्विपद नामपध्दति एक औपचारिक प्रणाली है जिसका उपयोग जीवित जीवों की प्रजातियों के नामकरण के लिए किया जाता है। यह 18 वीं शताब्दी में स्वीडिश प्रकृतिवादी(Swedish Naturalist) कैरोलस लिनिअस (Carolus Linnaeus) द्वारा विकसित किया गया था और आज भी इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।
द्विपद नामपध्दति में प्रत्येक जाति को एक अद्वितीय वैज्ञानिक नाम देना शामिल है जिसमें दो भाग होते हैं:- वंश (Genus) और जाति(Speciea)। वंश निकटता से संबंधित प्रजातियों का एक समूह है जो कुछ विशेषताओं को साझा करता है, जबकि जाति उस जीनस के भीतर किसी विशेष जीव के लिए एक विशिष्ट पहचानकर्ता है।
द्विपद नामपध्दति में नाम लैटिन भाषा में लिखे गए हैं, और जीनस का पहला अक्षर हमेशा पूंजीकृत होता है, जबकि प्रजाति का नाम नहीं होता है। इसके अतिरिक्त, यह इंगित करने के लिए कि यह एक वैज्ञानिक नाम है, पूरे नाम को तिरछा या रेखांकित किया गया है।
उदाहरण के लिए, मनुष्य का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स (Home sapiens) है। "होमो"(Homo) जीनस है और "सेपियन्स"(sapiens) जाति है। यह प्रणाली दुनिया भर के वैज्ञानिकों को बिना किसी भ्रम या अस्पष्टता के अध्ययन करने वाली विभिन्न प्रजातियों के बारे में प्रभावी ढंग से और सटीक रूप से संवाद करने की अनुमति देती है।
C) त्रिपद नामपध्दति (Trinomial Nomenclature)
त्रिपद नामपध्दति एक वर्गीकीय(Taxonomic) नामकरण प्रणाली है जिसका उपयोग किसी जाति के भीतर उप-जातियों, किस्मों या आबादी की अधिक विशिष्ट पहचान प्रदान करने के लिए किया जाता है। यह द्विपद नामपध्दति का विस्तार है, जिसका उपयोग जीवित जीवों की जातियों के नाम के लिए किया जाता है।
त्रिपद नामपध्दति में, एक जाति के भीतर एक उप-जाति, विविधता या जनसंख्या की पहचान करने के लिए तीन नामों का उपयोग किया जाता है। पहला नाम द्विपद नामपध्दति में जीनस नाम के समान है, उसके बाद दूसरा नाम है, जो जाति, तीसरा नाम उप-जाति का नाम है। विविधता या जनसंख्या का वर्णन करता है और अक्सर एक विशेषण होता है जो समूह की एक विशेषता का वर्णन करता है।
उदाहरण के लिए, बाघ की उप-प्रजाति का नाम पैंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस(Panthera tigris tigris) है। इस उदाहरण में, "पैंथेरा"(Panthera) जीनस है, "टाइग्रिस"(tigris) जाति है, और "टाइग्रिस"(tigris) उप-जाति है, जिसे जाति के नाम को दोहराकर दर्शाया गया है। एक अन्य उदाहरण है, ओलिया यूरोपाइला(Olea Europaea), जिसमें "ओलिया" वंश है, "यूरोपिया" जाति है, और "यूरोपिया" उप-जाति है।
त्रिपद नामपध्दति उपयोगी है क्योंकि यह एक प्रजाति के भीतर जीवों की अधिक सटीक पहचान प्रदान करता है, जो कि पारिस्थितिकी, आनुवंशिकी और संरक्षण जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है। यह एक प्रजाति के भीतर विभिन्न समूहों के बीच अंतर करने में मदद करता है, जिसमें अद्वितीय लक्षण या पारिस्थितिक भूमिकाएं हो सकती हैं, और जीवन की विविधता को समझने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है।
प्राणि नामपध्दति की अंतर्राष्ट्रीय नियमावली(International Code of Zoological Nomenclature
1989 में पेरिस(Parish) में सम्मन्न हुए प्राणि विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन नामपध्दति की एक सामान्य नियमावली के सूत्रीकरण हेतु प्राणि नामपध्दति के अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया। इस नियमावली के प्रथम संस्करण को 1901 में बर्लिन(Berlin) में हुए प्राणि विज्ञान के पाँचवें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अपनाया गया। 1958 में लंदन (London) में सम्मन्न हुए पँद्रहवें अधिवेशन में नियमावली को पुनः लिखा गया जिसे 6 नवम्बर, 1961 को प्रकासित किया गया। इस नियमावली का संस्करण 1964 में द्वितीय संस्करण के रूप में उपलब्ध हुआ। यह नियमावली केवल अधिकुल के नामकरण तक सीमित थी जिससे प्राणिविज्ञानी सन्तुष्ट नहीं थे। नियमावली का अंततम संस्करण 1999 में प्रकाशित हुआ तथा इसका प्रभावी उपयोग 2000 से प्रारम्भ हुआ।
प्राणि विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस एक विधायी समिति है जो कमीशन द्वारा रखे गए संविधान एवं प्रस्तावों को वोटिंग के माध्यम से अपनाती हैं। प्राणि नामपध्दति का अंतर्राष्ट्रीय आयोग प्राणि विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा निर्वाचित एक न्यायिक समिति हैं। यह आयोग नियमावली के संरक्षक का कार्य करता हैं तथा नियमावली की व्याख्याओं, विवादों एवं क्रियान्वयन से सम्बन्धित होता हैं। नियमावली में कोई भी संशोधन आयोग के ही माध्यम से होता हैं।
प्राणि नामपध्दति की अंतर्राष्ट्रीय नियमावली के भाग(Parts of International Code of Zoological Nomenclature)
प्राणि नामपध्दति की अंतर्राष्ट्रीय नियमावली में तीन भाग सम्मिलित हैं—
1) वास्तविक नियमावली(Code Proper)
2) परिशिष्ट (Appendices)
3) शब्दावली (Glossary)
वास्तविक नियमावली के अंतर्गत एक प्रस्तावना (Preamble) तथा अनिवार्य नियमों से आच्छादित 90 अनुच्छेद(Articles) सम्मिलित किये गए हैं। नियमावली के दूसरे भाग में तीन परिशिष्ट(Appendices) हैं जिनमें से प्रथम दो संस्तुतियों की स्थिति तथा तीसरी आयोग के संविधान को आच्छादित करती हैं। शब्दावली(Glossary) के अंतर्गत नियमावली में प्रयुक्त शब्दों की विस्तृत परिभाषा सम्मिलित की गई हैं। सबसे अंत में एक विस्तृत निर्देशिका (Index) भी दी गई हैं। नियमावली के मूल- पाठ(Text) अँग्रेजी तथा फ्रेंच दोनों भाषाओं में प्रकाशित होते हैं।
अग्रता का नियम(Law of Priority)
अग्रता के नियम के अनुसार किसी वर्गक (Texa) का सर्वाधिक पुरातन प्रकाशित एवं उपलब्ध नाम ही वैध या मान्य नाम(Valid Name) होता हैं बशर्ते है कि वह नामपध्दति के नियमों के अनुरूप हो। अग्रता के नियम का उद्देश्य नामों के स्थायित्व को प्रोत्साहित करना हैं । इस नियम में अग्रता वास्तव में प्रकाशन की अग्रता(Priority of publication) को निर्दिष्ट करती हैं।
यदि किसी वर्गक के एक से अधिक सहीं नाम उपलब्ध हो तो उनमें से सर्वाधिक पुरातन नाम को ही मान्यता दी जाती हैं। उदाहरणार्थ, तेंदुआ बिल्ली को फेलिस बेंगालेंसिस (Felis bangalensis) नाम केर(Kerr, 1792) द्वारा दिया गया। इसी जन्तु को ग्रे(Grey, 1837) ने फेलिस चाइनेन्सिस (Felis Chinensis) तथा पोकॉक (Pocock, 1939) ने प्रायोनेल्यूरस बेंगालेंसिस (Prionailurus bangalensis) नाम दिया। इस प्रकार उपर्युक्त नामों में फेलिस बेंगालेंसिस सर्वाधिक वरिष्ठ पर्यायनाम(Senior synonym) एवं मान्य नाम तथा शेष कनिष्ठ पर्यायनाम(Junior synonym) एवं अमान्य नाम हुए।
प्ररूप (Type)
ऐसा निदर्श(Specimen) अथवा निदर्शों का समूह जो किसी वर्गक को निर्धारित करवे वाले लक्षणों को निदर्शित करता है, प्ररूप(Type) कहलाता हैं। प्ररूप को नामित करने का उद्देश्य ऐसे वस्तुनिष्ठ अथवा विषयपरक संदर्भ (Objective Reference) उपलब्ध कराना होता है जिसका उपयोग वैज्ञानिकों द्वारा वर्णित की जाने वाली जाति(Species) की पहचान को सत्यापित किया जा सके। किसी वंश(Genus) अथवा उपवंश(Subgenus) का प्ररूप एक जाति होती हैं। किसी अधिप्रजातीय वर्गक (Supra generic taxon) जैसे कुल(Family) आदि का प्ररूप एक वंश होता हैं। अधिकुल से ऊपर के वर्गकों का प्ररूप नहीं होता। किसी प्ररूप को निर्धारित करने हेतु प्रयुक्त प्रणाली को प्ररूपीकरण(Typification) कहते हैं। यह आवश्यक नहीं होता कि किसी वर्गक का सबसे प्रारूपिक सदस्य ही प्ररूप हो। प्ररूप ही वर्गिकीय विवरण का आधार होता हैं।
प्ररूपों के प्रकार (Kinds of Type)
मायर(Mayor, 1953) तथा ब्लैकवेल्डर (Blackwelder, 1967) ने अनेक प्रकार के प्ररूपों का वर्णन किया परन्तु प्राणि नामपध्दति की नियमावली में केवल निम्नलिखित प्रकार के प्ररूपों को मान्यता प्रदान की गई हैं—
1) होलोटाइप(Holotype) — यह मूल लेखक द्वारा चयनित एकल निदर्श होता हैं। ऐसे निदर्श पर लाल रंग का लेबल(Label) लगाया जाता हैं।
2) एलोटाइप(Allotype) — होलोटाइप के विपरीत लिंग के निदर्श को एलोटाइप कहते हैं। इस पर भी लाल रंग का लेबल लगाया जाता हैं।
3) पैराटाइप(Paratype) — होलोटाइप एवं एलोटाइप को निर्धारित करने के पश्चात शेष बचे निदर्शों को पैराटाइप कहते हैं। इन पर पीला लेबल लगाया जाता हैं।
4) सिनटाइप(Syntype) — यदि किसी होलोटाइप का निर्धारण नहीं हुआ हैं तब लेखक द्वारा जाति का वर्णन करने हेतु अध्ययन किए गये सभी निदर्शों को सिनटाइप कहते हैं।
5) लेक्टोटाइप(Lectotype) — होलोटाइप की अनुपस्थिति में सिनटाइप्स में से एक निदर्श को लेक्टोटाइप तथा शेष निदर्शों को पैरालेक्टोटाइप्स(Paralectotype) के रूप में नामित किया जाता हैं।
6) निओटाइप(Neotype) — जब होलोटाइप, सिनटाइप, अथवा लेक्टोटाइप अस्तित्व में नहीं होते (अथवा लुप्त हो जाते हैं) तब समूह का प्रथम संशोधक(Reviser) किसी ऐसे निदर्श का चयन कर सकता है जो प्रजाति के सम्पूर्ण विवरण हेतु पूर्ण रूप से उपलब्ध हो। इस प्रकार से चयनित प्ररूप निदर्श(Type Specimen) का निओटाइप कहते हैं।
प्ररूप निर्दिष्ट करने हेतु वांछित सूचनाएँ (Information Desired for type Designation)
नई जाति के प्रकाशन हेतु होलोटाइप से सम्बन्धित निम्नलिखित सूचनाएँ उपलब्ध कराना आवश्यक होता हैं—
1) उस स्थान की सही जानकारी जहाँ से निदर्श को एकत्रित किया गया हैं।
2) एकत्रित करने वाले का नाम।
3) उसके विकास की अवस्था।
4) यदि वर्गक में एक से अधिक जातियाँ हो तो निदर्श की जाति।
5) परजीवी होने की दशा में पोषक का नाम।
6) जिस स्थान से निदर्श को एकत्रित किया गया है, उसकी ऊँचाई(Altitude) अथवा समुद्र स्तर से नीचे की गहराई।
7) यदि निदर्श एक जीवाश्म है तो उसकी भूगर्भीय आयु(Geological age)।
8) होलोटाइप का आकार अथवा उसके किसी एक या अधिक प्रासंगिक भागों का आकार।