जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) और जैव विकास (Bio evolution)
जैव विकास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होने वाला आनुवंशिक (Genetic) परिवर्तन है। पृथ्वी के प्रारंभ से ही निम्नकोटि के जीवों का क्रमिक परिवर्तनों द्वारा निरंतर अधिकाधिक जटिल जीवों की उत्पत्ति वास्तविक रूप से जैव विकास ही है। जैव विकास के अनुसार पृथ्वी पर पहले की पूर्वज जातियों के जैव विकास के द्वारा ही, नई-नई जातियां उत्पन्न हुई और हो रही हैं।
पृथ्वी का उद्गम लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व हुआ, जबकि इस पर जीवन की उत्पत्ति लगभग 3.5 – 4 अरब वर्ष पूर्व हुई। जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई विचार धाराएं प्रचलित हैं, अरस्तू द्वारा प्रतिपादित स्वत:जनन के सिद्धान्त के अनुसार, निम्न वर्ग के जीवधारी निर्जीव पदार्थों से स्वतः पैदा हो जाते हैं।
17 वीं शताब्दी के दौरान फ्रांसिस्को रेड्डी ने दो अलग-अलग बर्तनों, जिनमें एक खुला तथा दूसरा बन्द उसमें मांस का नमूना रखा। इस परीक्षण के निष्कर्ष में खुले बर्तन वाले मांस में कीड़े दिखाई दिए, जवकि बन्द बर्तन में नहीं। इससे अरस्तू के जीवन की स्वत: उत्पत्ति सिद्धान्त कमजोर पड़ा फिर लुई पाश्चर के प्रयोग से स्वत: जनन सिद्धान्त धराशायी हो गया। जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ओपेरिन एवं हेल्डेन द्वारा आधुनिक सिद्धान्त, प्रकृतिवाद या जैव-रसायन विकास (Bio-chemical evolution) सिदान्त प्रतिपादित किया गया।
ओपेरिन ने 1936 में अपनी पुस्तक द ऑरिजिन ऑफ लाइफ (The Origin of Life) में इस सिद्धान्त का विस्तारपूर्वक वर्णन किया, जिसके अनुसार आदिकाल में हाइड्रोजन गैस अधिक मात्रा में होने के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल अपचायक था तथा इसमें ऑक्सीजन अनुपस्थित थी। तापमान कम होने पर हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन आदि परमाणुओं के आपस में संयोग से इसके अणु बने। इस प्रक्रम में पहले जटिल कार्बनिक यौगिक तथा कोएसरवेट एवं न्यूक्लियोप्रोटीन्स का निर्माण हुआ।
स्टैनले मिलर अपने विख्यात प्रयोग में उसने पृथ्वी के प्रारम्भिक वायुमण्डल जैसी स्थितियों को पैदा करते हुए एवं बन्द फ्लास्क (स्वान आकार के) में विद्युत धारा को अमोनिया, मीथेन, हाइड्रोजन और वाष्प के मिश्रण में से गुजारकर कार्बोहाइड्रेड एवं अमीनो अम्लों का मिश्रण प्राप्त किया। इन पदार्थों में अभिक्रिया के परिणास्वरूप पॉलीसैकेराइड, प्रोटीन, लिपिड एवं न्यूक्लिक अम्ल बने।
न्यूक्लिक अम्ल में अभिक्रिया कर स्वप्रतिकृतियन की क्षमता थी। इनके विकास से निर्जीव एवं सजीव के बीच की एक सीमा निर्धारित हो गई और आगे चलकर प्रारम्भिक कोशिकाएँ, संश्लेषण वृद्धि तथा परिवर्धन करने लगी, जिसकी परिणति पोषण-विधियों के विकास के साथ सम्पन्न हुई। परजीविता, मृतजीविता, प्राणो सदृश पोषण विधियों के पश्चात् स्वपोषी पोषण विधि का भी विकास हुआ। ये स्वपोषी जीव दो प्रकार के रसायन-संश्लेषी तथा प्रकाश-संश्लेषी थे। इसकी अन्तिम कड़ी के रूप में वायुमण्डल का निर्माण हुआ तथा ऑक्सीजन की उपस्थिति से यह काफी महत्वपूर्ण हो गया।
जैविक विकास (Biological Evolution) क्या है ?
जीवन की उत्पत्ति आदिसागर के जल में न्यूक्लियोप्रोटीन्स के विषाणु, जैसे कणों के रूप में, आज से लगभग 3.7 अरब वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के प्रीकैम्ब्रियन महाकल्प में हुई और ये प्रारम्भिक जीव परपोषी एवं अवायवीय थे। इनकी कोशिका आज के विषाणु तथा माइकोप्लाज्मा के समान थी। कुछ समय संग्राहक का रूप ले लिया तथा आनुवंशिक कोड के बाद कोशिका के DNA ने आनुवंशिक सूचनाओं के द्वारा RNA एवं प्रोटीन-संश्लेषण से जुड़ गया।
ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भिक जीव रसायनी परपोषी थे, जो जटिल कार्बनिक पदार्थों के किण्वन से ऊर्जा प्राप्त करते थे। तदन्तर पर्णहरिम के विकास से प्रकाश-स्वपोषी जीवों का विकास हुआ। प्रारम्भिक प्रकाश-स्वपोषी-जीव-अवायवीय थे जो 3.5 अरब पूर्व वायवीय प्रकाश-स्वपोषी जीवों में रूपान्तरित हो गए।
लिन मारगुलिस के अनुसार, कुछ अवायवीय परभक्षी के कोशिकाओं ने प्रारम्भिक वायवीय जीवाणुओं का भक्षण किया और प्रथम यूकैरियोटिक कोशिका बन गई। परभक्षी कोशिका, जिसने वायवीय जीवाणु तथा प्रकाश-संश्लेषी नीली-हरी शैवाल कोशिका का भक्षण किया। वह यूकैरियोटिक पादप कोशिका बन गई अर्थात् वायवीय जीवाणु माइटोकॉण्ड्रिया तथा नीले-हरे शैवाल हरितलवक के रूप में स्थापित हो गए।
जैव विकास के सिद्धान्त (Theories of Organic Evolution)
जैव विकास एक विकासीय घटना है, जो क्रमिक एवं सतत् प्रक्रिया के अनुरूप सरल से जटिल जीवों की ओर होती है। जीवन की उत्पत्ति से संबंधित सबसे प्राचीन परिकल्पना, स्वतः उत्पादन की है, जबकि आधुनिक परिकल्पना प्रकृतिवाद की है।
इसके अन्तर्गत उपार्जित लक्षणों की वंशागति पर आधारित लैमार्कवाद, प्राकृतिक चयन सिद्धान्त पर आधारित डार्विनवाद तथा उत्परिवर्तन पर आधारित ह्यूगो डी व्रीज का सिद्धान्त प्रमुख रूप से शामिल है।
लैमार्कवाद (Lamarckism) क्या है ?
फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क ने 1809 ई. में फिलोसफी जूलोजिक (Philosophie Zoologique) नामक प्रसिद्ध पुस्तक में उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
इस सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक जीव अपने जीवन काल में जिस वातावरण में रहता है, उसके प्रभाव से अनेक लक्षण उपार्जित करता है। यही उपार्जित लक्षण उसकी सन्तानों में पहुँच जाते हैं तथा धीरे-धीरे नई जाति (new species) बन जाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, जिस अंग का लगातार प्रयोग होता है वह धीरे-धीरे आकार में बढ़ जाता है तथा जिस अंग का प्रयोग नहीं होता है या काफी कम होता है उसका क्रमशः ह्यस होता जाता है तथा अन्त में वह समाप्त हो जाता है; जैसे-अवशेषी अंग।
लैमार्क का सिद्धान्त मूलतः चार अवधारणाओं पर आधारित है, जो इस प्रकार हैं:
बड़े होने की प्रवृति
वातावरण का सीधा प्रभाव
अंगों के उपयोग एवं उसके अनुप्रयोग का प्रभाव
उपार्जित लक्षणों की वंशागति
लैमार्क के अनुसार, वर्तमान जिराफों के पूर्वज छोटी गर्दन एवं छोटी टाँगों वाले थे तथा वृक्षों की पत्तियाँ खाते थे, जिसके लिए उसे गर्दन ऊपर करनी पड़ती थी। ऊँचे वृक्षों की पत्तियाँ खाने के प्रयास में जिराफ की गर्दन एवं अगली टाँगें लम्बी हो गईं। अत: इस आधार पर किसी अंग के सक्रियता से उस अंग का विकास होता है। अंगों के कम उपयोग का उदाहरण लैमार्क ने साँपों में दिया, जिनके पैर गायब हो गए।
लैमार्कवाद की सबसे अधिक आलोचना जर्मन वैज्ञानिक वीजमान ने की, जिन्होंने अपने प्रयोग में 21 पीढ़ियों तक चूहों की पूँछ काटकर आपस में प्रजनन करवाया, परन्तु किसी भी पीढ़ी में पूंछ विहीन चूहे उत्पन्न नहीं हुए। इससे प्रमाणित होता है कि वातावरण से प्राप्त उपार्जित लक्षणों की वंशागति नहीं होती है। वीजमान ने जननद्रव्य की निरन्तरता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
जैव विकास के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
* पेलिओजोइक महाकल्प को प्राचीन जीवन का उद्भव काल भी कहते हैं।
* डेवोनियन कल्प को मछलियों का युग भी कहा जाता है।
* कार्बोनिफेरस कल्प को उभयचरों का युग कहा जाता है।
* मीसोजोइक महाकल्प को सरीसृपों का युग भी कहा जाता है।
* सीनोजोइक महाकल्प को स्तनधारियों का युग भी कहा जाता है।
* प्लीस्टोसीन युग को मानव युग कहा जाता है।
डार्विनवाद (Darwinism) क्या है ?
चार्ल्स डार्विन के जैव विकास के सम्बन्ध में विचार विस्तारपूर्वक उनकी पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ स्पीशीज बाइ नेचुरल सेलेक्शन’ (प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों का विकास) में सन् 1859 में प्रकाशित हुए।
डार्विनवाद के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:
जीवों में सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता प्रत्येक जीव जाति में सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, फल-मक्खी (ड्रोसोफिला) एक बार में 200 अण्डे देती हैं, जिससे 10-14 दिनों में वह मक्खियाँ बन जाती हैं। यदि सभी अण्डों से उत्पन्न मक्खियाँ जीवित रहें एवं जनन करें, तो 40-45 दिनों में इसकी संख्या लगभग 20 करोड़ हो जाएगी।
जीवन संघर्ष सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता के बावजूद प्रकृति में प्रत्येक जाति के जीवधारियों की संख्या लगभग स्थिर रहती है। इसका कारण यह है कि जीवधारियों को अपने अस्तित्व को बनाए रखने, वृद्धि करने एवं जनन करने के लिए भोजन, प्रकाश, वास-स्थान, जनन के लिए साथी आदि की आवश्यकता होती है। परन्तु ये सब प्रकृति में सीमित हैं। अर्थात् जीवधारियों को पैदा होते ही इनके लिए संघर्ष करना पड़ता है।
जैव विकास के बारे में डार्विन की व्याख्या का आधार एच एम एस बीगल नामक जहाज पर की गई समुद्री यात्रा के समय का प्राकृतिक अवलोकन एवं माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त था।
अपनी यात्रा के दौरान डार्विन ने गैलापैगोज द्वीप समूह पर 20 प्रकार की चिड़ियाएँ देखीं। बाद ये चिड़ियाएँ डार्विन की फिन्चिस के नाम से प्रसिद्ध हुई।
विभिन्नताएँ एवं उनकी वंशागति संसार में सभी जीवधारियों में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। एक ही माता-पिता की सन्तानें भी बिल्कुल एक जैसी नहीं होती हैं। विभिन्नताएँ केवल रंग रूप में ही नहीं बल्कि विभिन्न लक्षणों के लिए हो सकती हैं, जैसे-दौड़ने की शक्ति, रोगों से लड़ने की शक्ति, कार्य क्षमता आदि, जो भिन्नताएँ किसी जीवधारी का अस्तित्व बनाए रखने में सहयोगी होती हैं, ये लाभदायक विभिन्नताएँ अगली पीढ़ियों में पहुँचती हैं।
योग्यतम की उत्तरजीविता व प्राकृतिक चयन जीवन संघर्ष में वही जीवधारी सफल होते है, जिनमें परिस्थितियों के अनुकूल विभिन्नताएँ होती है और जनन करके जनसंख्या में वृद्धि करते हैं। अधिक-से-अधिक अनुकूल लक्षणों वाले जीवधारियों (योग्यतम) का एक प्रकार से प्रकृति द्वारा चयन होता है। इसी को योग्यतम की उत्तरजीविता या प्राकृतिक चयन (Natural Selection) कहते हैं, जिसे हरबर्ट स्पेन्सर ने सामाजिक विकास के सन्दर्भ में योग्यतम की अतिजीविता (Survival of the Fittest) कहा।
नई जातियों की उत्पत्ति वातावरण या परिस्थितियाँ निरन्तर बदलती रहती हैं। फलस्वरूप निरन्तर नए लक्षणों का प्राकृतिक चयन होता रहता है। उपयोगी विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठी होती रहती हैं और काफी समय बाद (सैकड़ों-हजारों वर्षों बाद) उत्पन्न जीवधारियों के लक्षण मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नई जाति बन जाती है।
विभिन्नताओं के कारण, उत्पत्ति तथा आनुवंशिकता की व्याख्या न होने, अवशेषी अंगों की उपस्थिति न होने आदि के कारण डार्विनवाद की आलोचना की गई।
नव-डार्विनवाद क्या है ?
नव-डार्विनवाद के अनुसार लैंगिक जनन करने वाले जीवों की सन्तानों में उत्परिवर्तन के कारण विभिन्नताएँ होती हैं। प्रकृति इनमें से लाभदायक विभिन्नताओं का चयन करती है। एक जाति के विभिन्न समूहों के प्रजनन काल भिन्न होने के कारण लैंगिक पृथक्करण हो जाता है, जिसके फलस्वरूप नयी जातियों का विकास होता है। पेपर्ड मॉथ की ग्रे किस्म का औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् काली किस्म में रूपान्तरित होना प्राकृतिक चयन का उदाहरण है।
ह्यूगो डी व्रीज का उत्परिवर्तन वाद
ह्यूगो डी वीज नामक वैज्ञानिक ने 1901 ई. में इवनिंग प्रिमरोज (ऑइनोथेरा लैमार्कियाना) में उत्परिवर्तन (mutation) की खोज की और उत्परिवर्तन सिद्धान्त दिया, जिसके अनुसार नई जाति की उत्पत्ति अचानक एक ही बार में होने वाली स्पष्ट एवं स्थायी (वंशागत) आकस्मिक परिवर्तनों (उत्परिवर्तनों) के कारण होती है।
उत्परिवर्तन वाद सिदांत की प्रमुख विशेषताएं
नई जातियों की उत्पत्ति एक ही बार में स्पष्ट एव स्थायी (वंशागत) आकस्मिक परिवर्तनों (उत्परिवर्तनों) के परिणामस्वरूप होती है, न कि छोटी-छोटी व अस्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचय व क्रमिक विकास के फलस्वरूप है।
सभी जीवधारियों में उत्परिवर्तन की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है, जो कभी कम या अधिक या लुप्त हो सकती है।
उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं। ये किसी एक अंग विशेष में अथवा अनेक अंगों में एक साथ ठत्पन्न हो सकते हैं। परिणामस्वरूप अंग अचानक लुप्त या अधिक विकसित हो सकते हैं।
एक ही जाति के विभिन्न सदस्यों में विभिन्न प्रकार के उत्परिवर्तन हो सकते हैं।
उपरोक्त उप्परिवर्तनों के परिणामस्वरूप अचानक ऐसे जीवधारी उत्पन्न हो सकते हैं, जो जनक से इतने अधिक भिन्न हों कि उन्हें नई जाति माना जा सके।
प्रकृति में स्वयं होने वाले उत्परिवर्तन प्राकृतिक (spontaneous) तथा X-किरणों, α-किरणों, β-किरणों या रासायनिक पदार्थों (जैसे-मस्टर्ड गैस) आदि के द्वारा प्रेरित किए जाने वाले उत्परिवर्तन कृत्रिम (induced) कहलाते हैं।
जाति निर्माण (Speciation)
जाति अन्तः प्रजनन करने वाले ऐसे जीवों का समूह है, जो एक या अनेक जनसंख्याओं में रहते हैं।
किसी जनसंख्या के सारे सदस्यों की जीन मिलकर उस जनसंख्या की जीन राशि (gene pool) बनाते हैं।
एक जननिक रूप से समांग जनसंख्या का दो या अधिक जनसंख्याओं, जो आनुवंशिक रूप से भिन्न तथा जननिक पृथक्करण युक्त हो, में टूटना जाति निर्माण या स्पीसिएशन (speciation) कहलाता है।
जाति निर्माण मुख्यतया दो प्रकार से होता है:
एलोपैट्रिक स्पीसिएशन
एक जाति को कुछ जनसंख्याओं का भौगोलिक पृथक्करण (geographical isolation) हो जाता है। हजारों वर्षों बाद ये दो जनसंख्याएँ विकास के क्रम में भिन्न हो जाती हैं। जब ये दो जनसंख्याएँ दोबारा सम्पर्क में आती हैं तब इनके बीच प्रजनन नहीं होता है। इस प्रकार प्रत्येक जनसंख्या एक नई जाति वन जाती है।
सिम्पैट्रिक स्पीसिएशन
जब एक जाति को, एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाली दो जनसंख्याएँ जननिक रूप से पृथक् हो जाती है, तब ये जनसंख्या धीरे-धीरे एक-दूसरे से भिन्न होती चली जाती हैं और अलग जातियाँ बन जाती हैं।
जैव विकास के प्रमाण (Evidences of Organic Evolution)
आकारिकी एवं शारीरिकी से प्रमाण
समजात अंग (Homologous organs)
ऐसे अंग, जो रचना और उत्पत्ति में समान परन्तु कार्य में भिन्न हो; जैसे-मेंढक, पक्षी एवं मनुष्य के अग्रपाद।
समवृति अंग (Analogous organs)
ऐसे अंग, जो समान कार्यों में उपयोग होने के कारण समान दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनकी मूल रचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में भिन्नता पाई जाती है समवृति अंग कहलाते हैं; जैसे-पक्षियो एवं कीटों के पंखा
अवशेषो अंग (Vestigial organs)
वे अंग, जो वे पूर्वजों में कार्यशील थे, परन्तु वर्तमान में कार्यविहीन है; जैसे-साँपों के अल्पविकसित पाद, कोबी पक्षी के पंख, मनुष्य के त्वचा के वाल, वर्माफॉर्म एपेन्डिक्स आदि। जीवों में कभी-कभी अचानक कोई ऐसा लक्षण विकसित हो जाता है, जो वर्तमान जातीय लक्षण न होकर किसी निम्न वर्गीय पूर्वव जाति का होता है इसो क्रिया को प्रत्यावर्तन (atavism) कहते हैं।
संयोजक जातियों से प्रमाण
कुछ जीव-जन्तुओं में उनसे कम विकसित निन्न वर्गीय जातियों के तथा उनसे अधिक विकसित उच्च वर्गीय जातियों के लक्षणों का सम्मिश्रण पाया जाता है।
उदाहरण संयोजक कड़ी
आर्किऑटेरिक्स – सरीसृपों एवं पक्षियों
निओपिलिना – मौलस्का एवं एनीलिडा
पेरीपेटस – एनीलिडा एवं ऑर्थोपोडा
प्रोटोथीरिया – सरीसृप एवं स्तनधारी
यूग्लीना – पादप एवं जन्तु
आनुवंशिकी से प्रमाण
विभिन्न जातियों के सदस्यों में परस्पर संकरण जातियों के घनिष्ट विकासीय सम्बन्धों को प्रमाणित करता है, जैसे – घोड़े तथा गधे से वर्णसंकर खच्चर का बनना।
तुलनात्मक कार्यिकी एवं जैव-रसायन से प्रमाण
फ्लोकिन एवं वाल्ड ने जन्तुओं एवं पादपों की कार्यिकी एवं जैव-रसायन से सम्बन्धित प्रमाण प्रस्तुत किए
प्रारम्भिक जीवों से लेकर जटिलतम स्तनियों तक जीवद्रव्य के समान रासायनिक संयोजन, प्रोटोजोआ से स्तनियों तक अधिकांश जन्तुओं में ट्रिप्सिन नामक एन्जाइम की उपस्थिति, एमाइलेस की उपस्थिति, सभी कशेरुकियों में थायरॉक्सिन हॉर्मोन की उपस्थिति तथा हीमोग्लोबिन से बनाए गए | हिमेटिन रवों की आकृति एवं माप में समानता, मानव व चिम्पैंजी में रुधिर सीरम प्रोटीन में समानता आदि जैव विकास को दर्शाते हैं।
बायोजेनेटिक नियम अथवा पुनरावृत्ति सिद्धान्त या भ्रौणिकी से प्रमाण
हैकेल ने इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया जिसके अनुसार, व्यक्तिवृत्त में जातिवृत्त की पुनरावृत्ति होती है अर्थात् जन्तु अपनी भ्रूणावस्था में पूर्वजों की अवस्थाओं को दोहराते हैं। (Ontogeny Repeats Phylogeny)
जीवाश्म
प्राचीन जीवों के शेष बचे भार्गों; जैसे – हड्डी दाँत, शैल आदि को जीवाश्म कहते हैं। ये मुख्यतया अवसादी चट्टानों में पाए जाते हैं। जीवाश्म की आयु यूरेनियम लैड विधि, रेडियोधर्मी कार्बन विधि, फिसन ट्रैक तथा इलेक्ट्रॉन चक्रण रेजोनेन्स आदि विधियों द्वारा ज्ञात की जाती है। कॉपोलाइट ऐसे जीवाश्म होते हैं, जिनमें जन्तुओं के मल में फॉस्फेट लवणों का संचय होता है।
मानव का विकास (Human Evolution) – सम्पूर्ण जानकारी
मानव या होमीनिड वंश, जो मनुष्य व कपियों के पूर्वज थे, का उद्भव आज से लगभग 2.4 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ। होमीनिड वंश का विकास एशिया तथा अफ्रीका में हुआ।
* डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘डेसेन्ट ऑफ मैन एण्ड सेलेक्शन इन रिलेशन टू सैक्स’ (Descent of Man and Selection in Relation to Sex) में मानव का विकास कपियों जैसे पूर्वज से होने के सिद्धान्त का वर्णन किया।
* लिनियस ने मनुष्य को वानरों व कपियों के साथ रखा तथा उसे वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स (Homo sapiens) दिया, जिसका अर्थ है – बुद्धिमान प्राणी।
मानव का वर्गीकरण
संघ – कॉर्डेटा
वर्ग – स्तनधारी
गण – प्राइमेट
उपगण – एन्थ्रोपोइडिया
कुल – होमीनिडी
वंश – होमो
जाति – सेपियन्स
उपजाति – सेपिएन्स
– गज-श्रूज (Elephant shrews) मानव के प्रारम्भिक पूर्वज माने जाते हैं।
– गिब्बन भारत में पाया जाने वाला अकेला कपि है।
• मानव व कपियों का विकास एक सम्मिलित पूर्वज से हुआ था।
. प्रोप्लिओपिथेकस मानव-पूर्व पूर्वज है, जिसके जीवाश्म लगभग 3.5 करोड़ वर्ष पूर्व ओलिगोसीन युग की चट्टानों में मिले हैं। इसमें मनुष्य व कपि दोनों के लक्षण हैं।
– मायोसीन में पाए जाने वाले कपि लिम्नोपिथेकस को गिब्बन का पूर्वज माना जाता है।
आधुनिक चिम्पैन्जी का पूर्वज प्रोकोंसल को माना जाता है
प्रोकोंसल के जीवाश्म लीकी द्वारा पूर्वी अफ्रीका से प्राप्त किए गए।
ड्रायोपिथेकस (Dryopithecus)
. ड्रायोपिथेकस अफ्रीकेन्स (Dryopithecus Africans) का जीवाश्म अफ्रीका और यूरोप की चट्टानों से प्राप्त हुआ ।
• इसे मनुष्य एवं कपि दोनों का पूर्वज माना जाता है।
• यह चिम्पैन्जी से करीबी समानता दिखाता है।
• यह मायोसीन के समय 250 लाख साल पहले जीवित था।
• यह शाकाहारी था और कोमल फलों व पत्तियों को खाता था।
रामापिथेकस (Ramapithecus)
लेविस (Lewis) ने 1932 में भारत की शिवालिक पहाड़ी की प्लीयोसीन चट्टानों से रामापिथेकस के जीवाश्म को खोजा।
यह 14-15 मिलियन वर्ष पहले पश्च-मायोसीन से प्लायोसीन युग में जीवित था।
रामापिथेकस अपनी पिछली टाँगों पर सीधा खड़ा होकर चलता था।
यह आधुनिक मानव की तरह कठोर नट व बीज खाता था।
ऑस्ट्रेलोपिथेकस (Australopithecus)
इसे प्रथम कपि मानव माना जाता है।
यह लगभग 4 से 1.5 मिलियन वर्ष पहले प्लीस्टोसीन युग के दौरान गुफाओं में रहता था।
इसकी कपाल क्षमता 500-700 घन सेमी थी। .
यह पूरी तरह द्विपद (bipedal) होमोनिड था।
जबड़े तथा दाँत मनुष्य के समान थे और यह सर्वाहारी था। .
इसकी खोज एल. बी. वी. लिकी ने की थी।
जावा मानव (होमो इरेक्टस इरेक्टस)
• जावा मानव का विकास पूर्व तथा मध्य प्लीस्टोसीन में लगभग 600000 वर्ष पूर्व हुआ।
• इसका जीवाश्म जावा के त्रिनिल स्थान से प्राप्त हुआ, जिसे डुबॉइस ने खोजा।
होमो इरेक्टस इरेक्टस नाम मेयर (1950) ने दिया।
• इसके जबड़े बड़े तथा भारी लेकिन आधुनिक मानव के लगभग समान थे
• इसकी कपाल क्षमता लगभग 40 घन सेमी थी।
औसत शारीरिक सम्बाई 170 सेमी तथा भार 70 किग्रा था।
यह सर्वाहारी था इसने सबसे पहले नि का उपयोग भोजन पकान, अपनी रक्षा करने तथा शिकार में किया था।
पेकिंग मानव (होमो इरेक्टस पेकिनेंन्सिंस)
पैकिंग मानत की खोज पाईनै 1924 में चीन के पैकिंग (बीजिंग) की।
पैकिंग मानव के जीवाश्म लगभग 6 लाख वर्ष पुराने थे।
इराकी कपाल गुहा का आयराम लगभग 850-1200 घन सेमी था।
ये जावा मानव की तरह सर्वाहारी तथा कनीयल थे। इनमें ठोड़ी अनुपस्थित थी।
ये पत्थर के औजारों को शिकार करने तथा अपनी रक्षा के लिए प्रयोग करते थे।
निएन्डरथल मानव (होमो सेपियन्स निएन्डरथेलेन्सिस)
जर्मनी की निएन्डर घाटी से 1856 में सी फूलरॉट ने निएन्डरथल मानव के जीवाश्म प्राप्त किए थे। ये सबसे पुराने जीवाश्म है।
इनका विकास लगभग 150000 वर्ष पूर्व हुआ था और लगभग 25000 वर्ष पहले ये विलुप्त हो गए। इनकी कपाल गुहा का आयतन 1450 घन सेमी था।
इनका जबड़ा गहरा, ठोड़ी रहित और खोपड़ी की अस्थियाँ चौड़ी थी।
ये सर्वाहारी और केनिबल थे और आग का प्रयोग खाना पकाने व गर्म रखने के लिए करते थे।
ये वास्तविक मनुष्य थे, जिनमें संस्कृति की उत्पत्ति हुई और ये हथियार बनाना भी जानते थे।
क्रो-मैग्नॉन मानव (होमो सेपियन्स फॉसिलिस)
ये लगभग 50000 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए तथा 20000 वर्ष पूर्व विलुप्त हो गए। इनके जीवाश्म क्रो-मैग्नॉन (फ्रांस) के पत्थरों से मैक प्रीगर ने 1868 में प्राप्त किया।
इनकी कपाल गुहा का आयतन 1660 घन सेमी था, जो कि आधुनिक मानव से भी अधिक था अर्थात् ये आधुनिक मानव से अधिक बुद्धिमान थे।
ये गुफाओं में सुन्दर चित्रकारी करते थे। निएन्डरथल व क्रो-मैग्नॉन दोनों ही आधुनिक मानव के सीधे पूर्वज माने जाते हैं।
आधुनिक मानव (होमो सेपियन्स)
लगभग 10000 वर्ष पूर्व आखिरी हिम युग (glacial period) के पश्चात् आधुनिक मानव का विकास क्रो-मैग्नॉन मानव से हुआ।
इनकी कपाल गुहा का आयतन लगभग 1460 घन सेमी होता है।
इनमें सेरीब्रम अत्यधिक विकसित होता है। आधुनिक मानव की कुछ प्रजातियाँ निम्न हैं:
(a) नीग्रोइड्स (Negroids)
(b) कॉकेसोइड्स (Caucasoids)
(c) मोन्गोलॉयड्स (Mongoloids)